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पतितोवारक जैनधर्म ।
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पोदनपुरके राजदरबारमें भीड़ लगी थी। मानब मेदनी महान थी वहा ! आज और किसीका नहीं बल्कि स्वयं राजाके इकलौते बेटे और सो भी युवराजके अपराधका न्याय किया जानेवाला था। न्यायाधीश थे स्वयं पोदनपुरके नरेश महाबल ! राजाने पूछा" राजकुमार ! तुमपर जो अपराध लगाया गया है, उसके विषय में क्या कहते हो ?" राजकुमार चुप था। इस चुप्पीने राजा महाबलकी कोषामिमें घीका काम किया। वह कड़क कर बोले कि-" चुप क्यों हो ? बोलते क्यों नहीं ? क्या तुमको मालम नहीं था कि अष्टाहिका पर्वमें हिंसा न करनेकी राजाज्ञा हुई थी ?"
राजकुमार लड़खड़ाते हुए बोला-" महाराज ! मालम थी।"
राजा.-"मालम थी ' फिर भी तुमने हिसा की ! रानाज्ञाका उल्लंघन किया ।"
राजकुमारका सिर अनायास हिल गया ! अपने इकलौते बेटे और राज्यके उत्तराधिकारीके इस तरह अपराध स्वीकार करनेपर भी राजा महावकका हृदय द्रवित न हुआ। उन्होंने राजकुमारको प्राणदण्डकी आज्ञा दे दी ! एक पशुके प्राणों के बदलेमें एक युवराजके प्राण ! सोना और मिट्टी जैसा अन्तर था उनमें। किन्तु एक पदार्थ-विज्ञानीके निकट सोना और मिट्टी एक ही खनिज पदार्थ है-दोनों ही मिट्टी हैं। संस्कारित होने पर उनके मूल्यमें भले ही अन्सर पड़े। इसी तरह जीवात्मा-मनुष्य और निर्या-सबका एक समान है। कर्म संस्कारके वशवर्ती हो-प्राणोंकी हीनाविकता के कारण