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२८) पतितोदारक जैनधर्म ।
__ म्लेच्छों-अनार्योंकी दीक्षायोग्यता, सकल संयम ग्रहणकी पात्रता और उनके साथ वैवाहिक संबंध आदिका ऐसा ही विधान संभवतः 'जयधवलके आधारसे ही 'लब्धिसार टीका' (गाथा १०३) में इस प्रकार है___म्लेच्छभूमिजमनुष्याणा सकलसंयमग्रहणं कथं भवतीति नाशं. कितव्यं ! दिग्विजयकाले चक्रवर्तिना सह आर्यखण्डमागतानां चक्रवादिभि. सह जातवैवाहिकसंबंधाना मंयमप्रतिपत्तेरविरोधात् । अथवा चक्रवर्त्यादिपरिणीताना गर्भवृत्पन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छ. व्यपदेशभाजः संयमसंभवात् । तथाजातीयकाना दीक्षाईत्वे प्रनिषेधाभावात् ॥
अर्थात-" कोई यों कह सक्ता है कि म्लेच्छभूमिज मनुष्य मुनि कैसे होसक्ते है ? किन्तु यह शंका ठीक नहीं है। क्योंकि दिग्विजयके समय चक्रवर्तीके साथ आर्यखंडमें आए हुए म्लेच्छ राजाओंको संयमकी प्राप्ति में कोई विरोध नहीं होसक्ता । तात्पर्य यह है कि वे म्लेच्छभूमिमे आर्यखण्डमें आकर चक्रवर्ती आदिसे संबंधित होकर मुनि बन सकते है । दूसरी बात यह है कि चक्रवनींके द्वारा विवाही गई म्लेच्छकी कन्यासे उत्पन्न हुई संतान माताकी अपेक्षासे म्लेच्छ कही जासक्ती है और उसके मुनि होने में किसी भी प्रकारसे कोई निषेध नहीं होसक्ता।"
जैनधर्ममें गुण ही देखे जाते है-गुणों के सामने हीन जाति और अस्पृश्यता न कुछ है। यही कारण है कि धर्मको धारण करके कुत्ता देव होसकता और पापके कारण देव कुत्ता होसकता । जैना