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परिवार धर्म |
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स्नानादि द्वारा जिसका शरीर शुद्ध रहता हो, ऐसा शूद्र भी ज्ञानादिक वर्णोंके सदृश धर्मका पालन करनेके योग्य है; क्योंकि जाति से हीन आत्मा भी कालादिक लब्धिको पाकर जैन अधिकारी होता है इस प्रकार संघके स्वास्थ्यकी रक्षा और परिपूर्णता के लिये बाबा शुद्धिका न्यान रखकर शूद्रादिको धर्मपालनेका अधिकारी शास्त्रोंमें ठहराया गया है। वैसे शरीर - पूजाके लिये जैन धर्ममें कोई स्थान नहीं है-जैनत्व तो गुण-पूजाके आश्रय टिका हुआ है। इसलिये श्री समन्तभद्राचार्य कहते हैं कि :-- "स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते । निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता ।।"
भावार्थ-" शरीर तो स्वभावसे अपवित्र है ( उसमें पवित्रता देखना भूल है ) उसकी पवित्रता तो रत्नत्रय अर्थात स धर्मसे है। इस लिए किसी भी शरीरसे वृणा न करमें गुण-धर्म में प्रेम रखना चाहिए, यह निर्विचिकित्सता है, " जिसका पालन करना प्रत्येक बैनीक लिए अनिवार्य है ।
शूद्रादि जातिके लोग भी यथाविधि जिनेन्द्र पूजन, शास्त्रस्वाध्याय और दान देकर पुण्य संचय कर सक्ते हैं। श्री धर्मसंग्रह आवकचार' में लिखा है:
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'यजनं याजनं कर्माऽध्ययनाध्यापने तथा ।
दानं प्रतिगृह्येति षट्कर्माणि द्विजन्मनाम् ॥ २२५ ॥ यजनाऽध्ययने दानं परेषां त्रीणि ते पुनः ।'
अर्थात् -' ब्राह्मणके पूजन करना, पूजन कराना, पढ़ना, पढ़ाना,