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२४] पतितोद्धारक अनधर्म। मिलता है।' 'प्रायश्चित्त समुच्च' नामक शास्त्र में स्पष्ट लिखा है कि
" आगाहकारणे कश्चिन्छेवाशुद्धोऽपि शुद्धयति "
अर्थात् - " देव, मनुष्य, नियंच या अचेतनकृत उपमर्गवश या व्याधिवश दोष मेवन कर लेने पर रोष असरकारी अमानुवीची
और अयानमेवी पदोंकर अशुद्ध होते हुए भी कोई पुरुष शुद्ध हो जाता है । भावार्थ -वह उम दोष योग्य लघु प्रायश्चित्तको ग्रहण कर शुद्ध होता है ।" प्रायश्चित्तके विना चाग्विधर्मका यथाविधि पालन दोना अशक्य है। इसीलिये कहा गया है कि - • प्रायश्चित्तेऽसति स्यान्न चास्त्रि तद्विना पुनः । न तीर्थ न विना तीर्थानिवृत्तिम्तद् वृथा व्रतं ॥ ५॥"
-प्रायश्चित्तसमुच्चय । अर्थ-" प्रायश्चित्तके अभावमें चारित्र नहीं है। चारित्रके अभावमें धर्म नहीं है, और धर्म के अभावमें मोक्षकी प्राप्ति नहीं है। इसलिये व्रत धारण करना व्यर्थ है :" बनधर्ममा ग्रहण कग्ना तब ही सार्थक है जब कृत दापोंके लिय प्रायश्चित्त लिये और दिये जाने की व्यवस्था हो-पतितोद्धारकी विधिका निर्वाध पालन किया जाता हो । इसीलिये कहा गया है कि महान पतित-नीचमे नीच कहा जानवाला मनुष्य भी इमे धारण करके इमी लोकमें अति उच्च बन सकता है।
१-प्रायश्चित्त समुच्चय, श्लोक १३९ । पृष्ठ २०६) २-'यो लोके त्वानत: सोऽतिहीनोऽप्यतिगुरुर्यतः । बालोऽपि त्वाश्रितं नौति को नो नीतिपुरुः कुर: ॥८२॥'
-जिनशतके, ममन्तभद्रः ।