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पतितोद्धारक जैनधर्म। .......[ २३ धर्मकी भी क्षति होती है । अर्थात् समाजके साथ २ धर्मको भी भारी हानि उठानी पड़ती है । उसका यथेष्ट प्रचार और पालन नहीं हो पाता।" अतः पनित हुये मनुष्यको प्रायश्चित्त देकर पुनः धर्ममार्गमें लगाना श्रेष्ठ है। श्री जिनसेनाचार्यजी भी · आदिपुराण' (पर्व ४० श्लोक १६८-१६९.) में यही निरूपण करते हैं:"कुतश्चित्कारणाघस्य कुलं सम्माप्तदूषणं । सोपि राजादिसम्मत्या शोधयेत्स्वं यदा कुलम् ॥१६८॥ तदाऽस्योपनयाहत्वं पुत्रपौत्रादिसन्ततो। न निषिद्धं हि दीक्षा कुले चेदस्य पूर्वजाः ॥१६९॥"
भावार्थ-" किसी कारणमे किसी कुलमें दोष लगा होवे तो वह राजादिकी आज्ञामे अपना कुल शुद्ध करें तब उमके जिनदीक्षा ग्रहण करनेकी योग्यता आती है; क्योंकि उसका कुल दीक्षाके योग्य है। उसके पूर्वज साधु-मुनि हुए है । इसलिये जो सिरझे वहीं सिरझे. कुलनिषेध नहीं है । इन अच्छे कुलोंमें कदाचित् कोई भ्रष्ट हुआ हो-श्रावकके आचारसे रहित हुआ हो- उसके पुत्रपौत्रादिमें कोई जिनदीक्षा धारण करे तो योग्य है।" पतितावस्याकी अशुद्धिको मेंटने के लिये जैनसाहित्यमें प्राय
श्चित्त ग्रंथों की रचना की गई है। उनमें मुनि प्रायश्चि ग्रन्थोंका हत्यारे जैसे महान पापीको भी शुद्ध करकेविधान। उसको विशेष रूपमें व्रत-उपवास आदि
कराकर रुतपापका दोष निवारण करके उसके पूर्वपद (भावक या मुनिपद) पर स्थापित करने तकका विधान