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पतितोद्धारक ग
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अर्थात- 'जिन्हें नीच जातिमें उत्पन्न हुआ कहा जाता है वे शीधर्मको धारण करके स्वर्ग गए हैं और जिनके लिये उच्च कुलीन होनेका मद किया जाता है, ऐसे दुराचारी मनुष्य नरक गये हैं।' सच है, गुण ही मनुष्यको बनाते और बिगाडन है । गुण ही मनुष्य जीवनकी दिव्य आभा है ! शरीर-सौन्दर्य-जैसे विंशुक फूल और उच्च जातिका जन्म गुणबिन कुछ मूल्य नहीं रखते' इसीलिये श्री जिन'सेनाचार्य 'आदिपुराण' में उस मनुष्यको ही ' हिन' कहते हैं जो विशुद्धवृत्ति - आचारका धारी है। और उसकी गिनती किसी भी वर्ण जाति नहीं करते '* गर्ज यह कि चारों ही वर्णके मनुष्य धर्म धारण करनेकी योग्यता रखते हैं !
श्वेताम्बर जैनाचार्य भी मनुष्यमात्रको धर्मका अधिकारी घोषित करते है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जिनेन्द्रका
श्वेताम्बरीय मान्यता | धर्मोपदेश प्राणीमात्रके लिये होता था । मनुष्यों में आर्य और अनार्य - द्विपद-चतुष्पददोनों ही उसमे समानरूपमें लाभ उठाते थे उन दोनोंको लक्ष्य करके
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विशुद्धवृत्तयस्तस्माज्जना वर्णोत्तमा द्विजाः ।
वर्णान्तःपातिनो नेते जगन्मान्या इति स्थितम् ॥३९॥१४२॥ '
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भावार्थ- 'विशुद्र वृत्ताले जैन हो सब वर्णों में किसी वर्ण में शामिल नहीं है। और वे हो जगतमान्य दूसरे शब्दों में यू कहना चाहिये कि या जातिमे कोई मतलब नहीं, जिस किसी व्यक्तिकी वृत्ति विशुद्ध है व्हीजन और जन्नान्य द्विज है । "
उत्तम हैं-वे
द्विन है ।
"