________________
पतितोदारक जैनधर्म । [१७ अर्थात- "बामग, क्षत्रिय, वैश्य-ये तीनों वर्ण (आमतौरपर ) मुनिदीक्षाके योग्य हैं और चौथा शूद्र वर्ण विधिके द्वारा दीक्षाके योग्य है । ( वास्तवमें । मन, वचन. कायमे किये जानेवाले धर्मका अनुष्ठान करने के लिये सभी जीव अधिकारी है।" यही आचार्य और भी कहते हैं कि'उच्चावचजनप्रायः समयोऽयं जिनेशिनां । नैकस्मिन्पुरुषे ति देकस्तम्भ इवालयः ।।-यशस्तिलके ।' ___ अर्थात-"जिनेन्द्रका यह धर्म प्रायः ऊँच और नीच दोनों ही प्रकार के मनुष्योंके आश्रित है । एक स्तंभके आधारपर जैसे मकान नहीं ठहरता, उसी प्रकार ऊंच नीन में से किसी एक ही प्रकार के मनुप्य समूहके आधारपर धर्म टग हुआ नहीं है।" बात असलमें यह है कि समारमें वे ही मनुष्य उच्च कहलाते है जिनका आचरण शुभप्रशंसनीय होता है। अब यदि उन अच्छे ऊंचे आदमियोंमें ही धर्म सीमित कर दिया जाय तो फिर निन्न कोटि के धर्म नियम बेकार हो जाने है। और उसपर धर्म प्रत्येक प्राणीकी स्वभावगत चीज होनेके कारण उससे वंचित भला कौन किया जासकता है ? इसीलिये जैनाचार्य ऊंच नीच दोनों प्रकारके मनुष्यों के आश्रित धर्मको ठहराते है। क्योकि दोनों ही प्रकार के मनुष्य आने अच्छे बुरे कर्मों के अनुमार उच्च और नीच होजाने है। श्री अमितगति आचार्य के निम्नलिखित वचन इस कथन के पोषक है
'शीलवन्तो गताः स्वर्ग नीचजातिभा अपि । कुलीना नरकं प्रामाः शीलसंयमनाशिनः ॥"