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'सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहर्ज । देवा देवं विदुर्मस्मगूढांगारान्तसैजसम् ॥२८॥रत्नक०' श्री रविषेणाचार्य इसी बातको और भी स्पष्ट शब्दोंमें यों
बच जात्यतरस्थेन पुरुषेण त्रिया कचित् । क्रियते गर्मसम्भूतिविप्रादीनाञ्च जायते ॥ १९६ ॥ भवाया रास भेनास्ति समवोऽस्येति चेन सः । नितांतमन्यजातिस्पशूद्रादितनुसाम्यतः ॥ १९७ ॥ यदि था तबदेव स्यात्तयोर्विसदृशः सुतः । नात्र दृष्ट तथा तस्माद्गुणैर्वर्णव्यवस्थितिः ॥ १९८-११।।
भावार्थ-"जातिसे जो ब्राह्मण आदि भेद माने जाते हैं वह ठीक नहीं हैं। किसी भी तरह ब्राह्मणके शरीर में और शुदके शरीग्में अंतर नहीं मालूम देता । इसलिये यह जातिभेद आहेतुक है । जहापा जाति दिखती है वहींपर वह सम्भव है, जैसे-मनुष्य, हाथी, गधा, बेल, वोडा मादि में जातिमेद है । किसी दूसरी जातिका पुरुष किसी दूसरी जातिकी स्त्रीमें गर्भाधान नहीं कर सक्ता मिलना चाहिये, किन्तु ब्राह्मणके द्वारा शुदमें और शुदके द्वारा ब्राह्मणमें गर्भाधान होसक्ता है। इसलिये ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र-ये जुदी जुदी जातियां न कहलाई। कोई यह प्रश्न करे कि घोड़ीमें गधेसे तो गर्भ रह जाता है तो यह ठीक नहीं; क्योंकि घोड़ा और गधामें पूर्ण जातिभेद नहीं है क्योंकि खुर वगैरहर दोनोंके समान होते हैं अथवा घोड़ी गधेसे जो सन्तान पैदा होती है वह बिल्कुल तीसरे प्रकारकी (खच्चर) होती है। लेकिन ब्राह्मणीके शद्रके सम्बन्धसे पैदा होनेवाली सन्तान इसप्रकार विसदृश नहीं होती। इसलिए ब्राह्मणादि भेद व्यवस्था गुणसे मानना ही उपयुक्त है।"