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पतितोद्धारक जैनधर्म
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किन्तु यह वृत्तिभेद मनुष्योंमें किसी प्रकारका मौलिक भेद स्थापित नहीं करता । इसीलिये जैनधर्ममें कोई भी मनुष्य जन्म गत जातिके कारण गति नहीं ठहराया गया है। जन्मका एक ब्राह्मण और चांडाल दोनों ही समान रीतिमें धर्म पालनेके अधिकारी हैं। डिगंबर जैनाचार्य श्री कुन्दकुन्दस्वामी इसीलिये कहने है कि -
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उस समय वह उस जातिका नहीं रहता; बल्कि वह तो उस जातिका व्यक्ति वस्तुतः होजाता है, जिसका बाचार वह पालन करता है । ऐसी दशा में ऊँची जातिवाले नीच और नीच जातिवाले ऊँच होजानेके अधिकारी ठहराये गये हैं । " धर्म परीक्षा " में श्री अमितगति आचार्यने गुणोंके होनेपर जातिका होना और गुणोंके नाश होनेपर जातिका विनाश माना है। ('गुणैः संपद्यते जातिगुणध्वंसर्विपद्यते ' ) उन्हींका वचन है कि:
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'ब्राह्मणोऽवाचि विप्रेण पवित्राचारधारिणा ।
विप्राया शुद्धशीलाया जनिता नेदमुत्तरम् ॥ २७ ॥ न विप्राविप्रयोर स्ति सर्वदा शुद्धशीलता | कालेनाsनादिना गोत्रे स्खटन क न जायते ||२८|| ' अर्थात्- 'यदि यह कहा जाय कि पवित्रा आचारधारी ब्राह्मणके द्वारा शुद्ध शीला ब्राह्मणी के गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न होता है उसे ब्राह्मण कहा गया है- तुम ब्राह्मणाचारके धरनेवाले को ही ब्राह्मण क्यों कहते हो ? तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि यह मान लेनेके लिये कोई कारण नहीं है कि उन ब्राह्मण-ब्राह्मणी दोनों में सदा कालसे शुद्ध शीलताका मस्तित्व (अक्षुण्णरूपसे) चला बाता है । अनादिकाल से चली बाई हुई गोत्र सतति में कहीं दोष नहीं लगता ? लगता ही है।
भावार्थ- इन दोनों श्लोकोंमें माचार्य महोदयने जन्मसे जाति