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नहीं करता । हां, आहार या वृत्तिके आधारसे उसमें भी मनुष्योंको क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शख वर्गामें विभक्त किया गया है।' १-वर्णात्यादि मेदानां देहेऽस्मि च दर्शनात् । ब्राह्मण्यादिषु शूदागर्भाधानप्रवर्तनात् ॥ नास्ति जातिकृतो मेदो मनुष्याला गवाऽश्ववत् । भाकृतिहणात्तस्मादन्यथा परिकल्पते ।।
-महापुराणे गुणमदः । भावार्थ-" इन जातियोंका भाकृति मादिके मेदको लिये हुए कोई शाश्वत् लक्षण भी गो-अश्वादि जातियोंकी तरह मनुष्य शरीर में नहीं पाया जाता, प्रत्युत इसके शूद्रादिके योगसे ब्राह्मणी मादिकमें गर्भाधानकी प्रवृत्ति देखी जाती है, जो वास्तविक जातिमेदके विरुवा है।"
'माचारमात्रभेदेन जातीनां मेदकल्पनं । न जातिाह्मणीयास्ति नियता कापि तात्विकी ॥१७-२४॥
-धर्मपरीक्षा। अर्थात्-" जातियोंकी जो यह ब्राह्मण, क्षत्रियादि रूपसे मेद कल्पना है, वह भाचार मात्रके मेदसे है-वास्तविक नहीं। वास्तविक दृष्टिसे कहीं भी कोई शाश्वत् ब्राह्मण (आदि) जाति नहीं है।
श्री रविषेणाचार्य मी जातिको कोई तात्विक मेद न मानकर माचारपर ही उसे अवलंबित कहते है:
'चातुर्वर्य यथान्यच चाण्डालादिविशेषणं ।
सर्वमाचार मेदेन प्रसिद्धं भुबने गलम् ॥' पर्यात-बामण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्ध या चाण्डालादिकका तमाम विभाग बाचरणके मेदसे हो लोकमें प्रसिद्ध हुमा है।''त: जिस बातिका जो भाचार है उसे जिस समय कोई व्यक्ति नहीं पालता है,