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प्रभु महावीरने अपने इस धर्मका द्वार प्रत्येक जीवके लिये
खुला रक्खा था, किन्तु खेद है कि उनकी धर्म जातिगत उच्चता इस समुदार शिक्षाको उनके शिष्योंने कुछ नीचता नहीं देखता। समयसे भुला दिया है। इसमें मुख्य कारण
देशकालकी परिस्थिति थी। पौराणिक हिन्दू धर्म के प्रचार और प्राबल्यके सम्मुख नैनी अपने समुंदार सिद्धांतको अक्षुण्ण न रख सके। प्रवृत्तिमें वे अपने पड़ोसी हिन्द भाइयोंकी नकल करनेके लिये लाचार हुये। किन्तु अब देश-कालकी परिस्थिति बदल गई है। प्रत्येक मनुष्यको अपने मतको पालने
और उसका प्रचार करनेकी स्वाधीनता है । अतएव इस समय तो प्रत्येक जैनीको भगवान महावीरके धर्मोपदेशकी महान् उदारताका प्रतिधोष जोरके साथ करना उचित है। प्राचीनसे अर्वाचीन प्रत्येक जैनाचार्य इस उदारताकी घोषणा स्पष्ट रूपेण करते हैं। उनका विदर्शन निन्न पंक्तियों में करके प्रत्येक वीरभक्तके प्रति कर्तव्यपालन करने के लिये हमारा सादर निमंत्रण है। जनधर्ममें मनुष्योंकी एक जाति बताई गई है। वह मनुष्योंमें पशु जगतके समक्ष मेद स्थापित १- मनुष्यतिरेकैव जातिकर्मोदयोद्रया। वृत्तिमेदा हि तभेदाचातुर्विध्यमिहास्नुते ॥ ३८-४३ ॥
-मादिपुराणे जिनसेनः । भावार्य-जाति नाम कर्मके उदयसे मनुष्य जाति एक है, परन्तु वृत्तिके मेदसे उसमें क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शुद्ध रूप चार वर्णों की कल्पना की गई है।