________________
पतितोद्धारक जैनधर्म ।
८]
....I BILLIONIONL
IDR ID/101 DI MIS IS
कर्ममल' कहते है । इस 'कर्ममल' के कारण ही जीव अपनी स्वाभाविक स्थितिको खोये बैठा है । वह 'पतित' है ।
.....
किन्तु अब प्रश्न यह है कि क्या यह संभव है कि यह पतित जीव अपना उद्धार कर सकेगा ? अपनेको पतन - गहर से निकालकर आत्मस्वभावकी ऊँची शैल शिखरपर बिठा सकेगा / निःसन्देह यह संभव है । यदि यह संभव न होता तो आज संसारमे 'पंथ' और मत' दिखाई न पड़ते धर्म कर्मका प्रचार कहीं न होता । प्रकृतिका यह नियम है कि वह अपने पद से भृष्ट हुएको सत्संगति दिलाकर श्रेष्ठ पद- उसका वही पद उसे दिलादे जिसे वह खो बैठा है। गंगाजलको मनुष्य काममें लाते है। वह ढलकर नाली में जाकर गंदा होजाता है- अपनी पवित्रता और श्रेष्ठता खो बैठता है । कोई भी उसे हने तकको तैयार नहीं होता । किन्तु जब वहीं पतित' पानी गंगाकी पवित्र धारामें जा मिलता है तो अपना गंदापन खो बैठत है और उमीको फिर मनुष्य भरकर लाने है तथा देव प्रतिमाओंका उससे अभिषेक करने है
1
प्रकृतिकी यह क्रिया पतितोद्धारको महज साध्य प्रमाणित करती है। मेघके कोटि पटल सूर्यके प्रकाशको छुपा देते है; परन्तु फिर भी वह चमकता ही है। ठीक यही बात जीवके सम्बन्ध में
| संसार में वह अपने स्वभावको पूर्ण प्रकट करने में असमर्थ हो रहा है, परन्तु वह है उसीके पास ! वह उसका धर्म है ! बाहरी ' मैटर ' कब तक उसको घेरे रहेगा ? आखिर एक अच्छे-से दिन वह उससे छूटेगा और वह अपना
महान् पद '
6