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___उपरीक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि मन धर्म एक वैज्ञानिक धर्म
है जिसपर प्राणीमात्रका समान अधिकार है। जैन धर्म पतितोद्धारक किन्तु प्रकृत विषयके स्पष्टीकरणके लिये यह भी है। विशेष रूपमें देख लेना आवश्यक है कि
क्या पतित जीव भी जैन धर्मसे लाभ उठा सकते हैं ? क्या सचमुच जैन धर्म पतितोद्धारक है ? इस प्रश्नका ठीक ठीक उत्तर पाने के लिये ‘पतित ' शब्दका भाव स्पष्ट होजाना नितान्त उपयोगी है । साधारणतया 'पतित' शब्दका अर्थ अपने पद-अपने स्वभाव अथवा अपनी स्थितिमे च्युत होना प्रचलित है
और वह है भी ठीक । किन्तु जीवके सम्बन्धमें उसका अर्थ क्या होगा ? निःसंदेह जीवको वह अपने स्वभाव और अपनी स्थितिसे च्युत हुआ प्रगट करता है । वास्तवमें यह है भी सच, क्योंकि जीवका स्वभाव पूर्ण ज्ञान दर्शन और सुखरूप है, किन्तु आज प्रत्येक जीवमें उसकी अभिव्यक्ति पूर्ण रूपसे दृष्टिगोचर नहीं होती। ___ जीव तीन लोककी विभूतिसे अधिक विभूतिका स्वामी होकर भी इस मंसारमें न कहींका होरहा है। अधिकांश जीव तो अपने इस 'स्वाभाविक संपत्ति' से बिल्कुल हाथ धोये होते है। वे क्रोध, मान, माया, दम्भ, अज्ञान, व्यभिचार आदि दुर्गुणोंमें ऐसे रत होने हैं कि लोग उन्हें 'अधर्मी' 'पापी' कहते हैं। सचमुच ये सब पतित हैं-कोई कम है और कोई ज्यादा । अपनी अच्छी बुरी कषाय जनित मन, वचन, क्रियाके वशवर्ती होकर जीव अनादिकालसे अपनेसे भिन्न एक सूक्ष्म पुद्गलरूप मैलको अपनेमें जमा करता आरहा है, जिसे जैनदर्शनमें