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पतितोद्धारक जैनधर्म |
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अब चूंकि जैनाचार्य भी धर्मको प्राकृत जीवका स्वभाव घोषित
करते हैं, तब यह उनके लिये अनिवार्य है। जैन धर्म सार्वधर्म है। कि वे जीव मात्रको उस यथार्थ धर्मको पालन करनेके लिये उत्साहित करें उन्हें आत्मज्ञानकी शिक्षा देवें और धार्मिक क्रियाओंको पालने देनेका अवसर प्रदान करें । सचमुच गत कालमें अनेक जैन तीर्थंकर ऐसा ही कर चुके हैं। उन्होंने भटकते हुए अनेकानेक जीवोंको सच्चे धर्मके रास्तेपर लगाया था। मार्गभ्रष्ट जीवोंको सन्मार्गपर लेआना उन्होंने अपना महान् कर्तव्य समझा था । इस कर्तव्य की पूर्ति के लिए उन्होंने राजपाट, धन, ऐश्वर्य, सत्ता, महत्ता और रत्न रमणी सभी कुछ त्याग डाला ! अपनेको महलोंका राजा बनाये रहना उन्हें प्रिय न हुआ। वे रास्तेके फकीर बने और तनपर एक बज्जी भी न रक्खी। मान अपमान, ताड़न-मारन, सब कुछ उन्होंने समभावसे सहन किया और यह सब कुछ सहन किया एक मात्र अपना कर्तव्य पालन करनेके लिये जीव मात्रका कल्याण करनेके लिये । सचमुच वे महान् जगदुद्धारक थे - जीव मात्रका उन्होंने उपकार किया । उनका धर्मोंपदेश किसी खास देशके गोरे-काले या लाल-पीले मनुष्योंके लिये arrar किसी बिशेष सम्प्रदाय या जातिके लिये ही नहीं था । उस धर्मोपदेश से लाभ उठाने के लिये प्रत्येक समर्थ प्राणी स्वाधीन था । जैन शास्त्र कहते हैं कि मनुष्य ही नहीं, उनके धर्मको श्रवण करनेके किये उनके सभागृह में पशुओं तकको स्थान प्राप्त था। जैनधर्मकी १ - इरिवंशपुराण, सर्ग २ छो० ७६-८० ।