Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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१८ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति कोमल थीं। कानों तक लम्बे एवं कान्तिरूपी मूठ से युक्त उसके दोनों नेत्र ऐसे जान पड़ते थे मानों कामदेव के सुदूरगामी बाण ही हों ।'५१
प्रकृति को मानवीय रूप देने में रविण ने अपनी प्रतिभा तथा काल्पनिक शक्ति का अच्छा परिचय दिया है । नर्मदा का वर्णन करते हुए वे कहते है
'वह नर्मदा तरंग रूपी भकूटी के रिलास से मुक्त थी, आवर्त रूपी नाभि से सहित थी, तैरती हुई मछलियाँ की उसके नेत्र थे, दोनों विशाल तट ही स्थूल नितम्म थे, नाना फूलों से वह व्याप्त थी और निर्मल जल ही उसका वस्त्र था ! इस प्रकार उत्तम नायिका के समान थी । (ऐसी नर्मदा को देख रावण महाप्रीति को प्राप्त हुआ)
मर्मदा की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करते हुए वे कहते है---
वह नर्मदा कहीं तो उन्न मगरमच्छों के समूह से व्याप्त होने के कारण गम्भीर थी, कहीं वेग से बहती थी, कहीं मन्द गति से बहती थी, कहीं कुण्डल को तरह टेढ़ी-मेढ़ी चाल से बहती थी । नाना चेष्टाओं से भरी हुई थी, तथा भयंकर होने पर भी रमणीय थी।५३
छन्द योजना की दृष्टि से पद्मचरित की रचना अधिकांश अनुष्टुप्५४ श्लोकों में हुई है। अनुष्टुप् के अतिरिक्त इसमे शादूलविक्रीडित," मालिनी,
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५१. ...."त्रैलोक्यसुन्दरीरूपसन्दोहेनैव निर्मिता । पम० १५।१६ ।
नीलनीरजनिर्भासा प्रशस्तकरपल्लवा । पद्मगभिचरणा कुम्भिकुम्प निभस्तनी ।। पद्म १५॥१७ । तनुमध्या पृथुश्रोणी सुजानूरू: सुलक्षणा । प्रफुल्लमालसीमालामृदुबाहुलतायुगा ॥ पद्म० १५:१८ । कर्णान्तसंगते काम्सिकृतपुङले सुदरी ।
इषू ते कामदेवस्य ननु तस्या विलोपने ॥ पद्म १६६१९ । ५२. तरङ्गभ्रूविलासात्यामावर्तोत्तमनाभिकाम् ।
बिस्फुरकफरीनेषां पुलिनोस्कलत्रिकाम् ।। नानापुष्पसमाकोणी विमलोदकवाससम् ।
पराङ्गनामिवालोक्य महाप्रीतिमुपागतः ।। पद्म० १०॥६१, ६२ । ५३, उग्रनक्रकुलाकान्ता गभीरा वेगिनी क्वचित् ।
पषिमन प्रस्थित मन्दं क्यचित्कुण्डलगामिनीम् ।। नानाचेष्टितसम्पूर्णी कौतुकव्याप्तमानसः ।
अवतीर्णः सतां भीमां रमणीयां च सादरः ॥ पद्म० १०१६३, ६४ । ५४. पद्म० १०७।६८। ५५. पद्मः ११.२। ५६. पद्मा २२५४ ।