Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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१६ : पदमचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
हरि अर्थात् विष्णु की चेष्टायें तो पृषघाती अर्थात् वृषासुर को नष्ट करने बाली थी पर उसकी चेष्टा वृषघाती अर्थात् धर्म का घात करने वाली नहीं थी। इसी प्रकार महादेव जी का वैभव दक्षबर्गतापि अर्थात राजा दक्ष के परिवार को सन्ताप पहुँचाने वाला था परन्तु उसका वैभव दक्ष वर्गतापि अर्थात् चतुर मनुष्यों के समूह को सन्ताप पहुँचाने वाला नहीं था। जिस प्रकार इन्द्र की चेष्टा गोवविनाशकारी अर्थात् पर्वतों का नाश करने वाली थी उसी प्रकार उसकी बेष्टा गोवनाशकारी भर्थात् वंश का नाश करने वाली नहीं पी और जिस प्रकार दक्षिणदिशा के अधिपति यमराज के अतिदण्डप्रीति अर्थात दण्डधारण करने में अधिक प्रीति रहता है उसी प्रकार उसके अतिदण्डग्रहप्रीति अर्थात् बहुत भारी सजा देने में प्रोति नहीं रहती थी।
स्त्री के रूप सौन्दर्य का चित्रण करने में कषि की कल्पना मे कमाल दिखाया है। उदाहरणार्थ अंजना के शारीरिक सौन्दर्य के विषय में कवि की करुपना देखिए
'अंजना सुन्दरी अपने मुख रूपी पूर्ण चन्द्रमा को किरणों से भवन के भीतर जलने वाले दीपकों को निष्फल कर रही थी तथा उसके सोद काले और लाललFini को कालिस दिशा २-fait हो रही थी । यह स्थूल, उन्नत एवं सुन्दर स्तनों को धारण कर रही थी, उससे ऐसो जान पड़ती यो मानों पति के स्वागत के लिए शृङ्गार रस से भरे हुए दो कलश ही धारण कर रही थी।४१ नवीन पल्लवों के समान लाल-लाल कान्ति को धारण करने वाले तथा अनेक शुभलक्षणों से परिपूर्ण उसके हाथ और पैर ऐसे जान पड़ते थे मानों नल रूपी किरणों से सौन्दर्य को ही उगल रहे हों ।। उसकी कमर पतली तो थो ही ऊपर से स्तनों का भारी बोना पड़ रहा है इसलिए वह कहीं टूट न जाय इस भय से ही मानो उसे त्रिनलि रूप रस्सियों से उसने कसकर बांध रस्त्रा पा। वह अंजना जिन गोलभाोल जांघों का धारण कर रही श्री वे कामदेव के
४४. सम्पूर्णवक्त्रचन्द्रांशुविफलीकृतदीपिकाम् ।
सितामितारुणच्छायचक्षुःसरितदिङ्मुखाम्' ।। पद्म० १५।१४० । ४५. आभोगिनो समुत्तुङ्गी प्रियाय हरिणो कुचो ।
कलशाविव बिभ्राणां शृङ्गाररसपूरितो ।। पद्म० १५।१४१ । ४६. नवपल्लचसमझायं पाणिपाद सुलक्षणम् ।
समुगिरदिवाभाति लावण्यं नखरश्मिभिः ॥ पद्म० १५।१४२ । ४७. स्तनभारादिवोदारामध्यं भङ्गाभिशङ्कया ।
त्रिथलोदामभिबद्धं वपती तनुतामृतम् ॥ पदम० १५५१४३ ।