________________ प्रथमः सर्गः। करके) विसकी कथाका सम्यक् प्रकार से पानकर (स्थित म्यक्ति-विशेष के) कड़ि (कविन्द दोष ) का नाश होता है तथा जिसकी कवाका सम्यक् प्रकारसे पानकर बुध (विद्वान् , या देव ) अमृतका भी वैसा बादर नहीं करते..."। अथवा अक्षी अर्थात् अतक्रीडारत बिस नरूको पृथ्वी ( राज्य) है और जिसकी कथाका'""(इससे पतम्बसनी नको राज्य होनेसे इनकी बाबयंबनिका मोकिकी शकि व्यक होती है) उत्तराईका ग्यास्यान्तर-अथवा-जिस नलने अत्यधिक उज्ज्वल गुणविशिष्ट शृङ्गार रस, अथवा-जिस ( नल ) में दमयन्तीका उतरूप शृङ्गार रस अत्यधिक है, ऐसे तेजोराशि ( अथवा-सूर्यके समान स्थित ) चतुर्दिव्यापी कीर्तिमण्डएको श्वेतच्छत्र बनाये हुए वे नक थे [ राजा नलका धूतव्यसनी होना भागेके कथा-मागमें यद्यपि नहीं वर्णित है, तथापि महामारतादिमें इतव्यसनके कारण ही उनके राज्यच्युत होनेका वर्णन मिलता है। नलकी कथाको अमृताधिक मधुर होनेसे तथा अधिक शृङ्गार-रसपूर्ण होनेसे इन्द्रादि देवोंका दमयन्त्या नलस्य च / ऋतुपर्णस्य राजर्षेः कीर्तनं कलिनाशनम् // ' उक्तिके अनुसार नलकथाकीर्तनको कमिका नाशक होना सुपसिद्ध है। यहाँ पर शिष्टाचारानुसार किसी विशिष्ट देवतादिका नमस्कारादि रूप मजा नहीं किया गया है, किन्तु पूर्वोक्त 'कर्कोटकस्य......" तथा 'पुण्यश्लोको नको राजा पुण्यश्कोको युधिष्ठिरः। पुण्यकोका च वैदेही पुण्यश्लोको जनार्दनः // ' वचनों के अनुसार नल-कपाके कीर्तनको ही विशिष्ट वस्तुनिर्देशात्मक माछा. चरणरूपमें श्रीहर्षमहाकविने माना है। कुछ विद्वान इसे भमोष्ट देव रघुनाथबोका सबीन नमस्कारात्मकरूप मङ्गल मानते है। इस नैषधचरित महाकाव्यमें धीरललित राजा नरू नायक है तथा सम्मोग और विप्रलम्मरूप दिविध शृङ्गाररस भङ्गो है और अन्य करुणादि रस उसके अङ्ग हैं ] // 1 // रसैः कथा यस्य 'सुधावधीरिणी नलस्य भूजानिरभूदु गुणाद्भुतः। सुवर्णदण्ड कसितातपत्रितज्वलत्प्रतापालिकीर्तिमण्डलः // 2 // इममेवार्थमन्यथा थाह-रसैरिति / यस्य नठस्य कथा रसैः स्वादैः, 'रसो गन्धो रसः स्वाद' इति विश्वः / सुधा अवधीरयति तिरस्करोति तथाका अमृतादतिरिच्या मानस्वादेति यावत , ताच्छील्ये णिनिः / भूर्जाया यस्य स भूजानिा भूपतिरित्यर्थः / 'जायाया निङिति बहुव्रीहौ जायाशब्दस्य निङादेशः। स नलः गुणः शौर्यवाहि. ण्यादिभिः / अद्भुतः लोकातिशयमहिमत्यर्थः / अभूत् / कथम्भूतः सुवर्णदण्श्व एक सितातपत्त्रञ्च ते कृते द्वन्दात् तस्कृताविति ण्यन्तात् कर्मणि कः / ज्वलस्प्रतापावलिः कीर्तिमण्डलञ्च यस्य तथाभूतः। इह कीतः सितातपस्त्रस्वरूपणं पूर्वोकमपिसुवर्णदण्ड. 1. 'सधावधीरणी' इति पाठान्तरम् /