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६ मुनिद्वय अमिनन्दन ग्रन्थ हुई। पं० रत्न श्री खूबचन्द जी महाराज के प्रथम शिष्य बनने का आप श्री (श्री कस्तूर चन्दजी महाराज) को सौभाग्य प्राप्त हुआ।
श्री करतूट चन्दजी महाराज की
दीक्षा कुन्डली
१२ चं. / १० मा ९ X के०११-२०
२ गु०
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८बुध
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५रा. X6
दीक्षा का प्रारम्भिक काल
___ "पढमं नाणं तओ दया" इस शास्त्रीय वाक्यानुसार अध्ययन (ज्ञान) संयम का प्राण है । ज्ञान के अभाव में संयम-साधना नहीं हो सकती। इसलिए गुरुदेव श्री जवाहर लाल जी महाराज की प्रेरणा पाकर नवदीक्षित मुनि श्री कस्तूरचन्द जी महाराज आगम-ज्ञान की ओर प्रवृत्त हुए। ग्रहण शक्ति और बुद्धि की पटुता के कारण आपने थोड़े ही समय में सम्पूर्ण दशवैकालिक सूत्र एवं कुछ उत्तराध्ययन सूत्र के अध्ययन कंठस्थ किये और अनुत्तरोववाई व निरियावलि का सूत्र की वाचना पूर्ण की। अध्ययन के साथ-साथ गुरुदेवों की सेवा-भक्ति एवं विनय वैयावृत्य में भी प्रगति करने लगे।
रामपुरा का यशस्वी वर्षावास पूर्ण हुआ कि-वहां से मुनिवृन्द छोटे-छोटे गाँव नगरों को धर्मोद्योत करते हुए सिंगोली आये। आशातीत धर्म-प्रभावना कर धारणी गांव को पावन किया। यहां नवदीक्षित मुनि श्री कस्तूरचन्द जी महाराज का प्रथम केश-लुंचन सम्पन्न हुआ। यात्रा आगे बढ़ी, कई ग्रामवासियों को धर्मालोक से आलोकित करते हुए मांडलगढ़ पधारे। यहाँ श्री शीतलदास जी महाराज के सम्प्रदाय के पूज्य श्री प्रतापमल जी महाराज से स्नेह मिलन कर बिगोद आये। बिगोद गांव में नवदीक्षित मुनि श्री (कस्तूरचन्द जी महाराज) ने प्रथम धर्मोपदेश फरमाया । फलस्वरूप काफी त्याग-प्रत्याख्यान हुए। अब कदम चित्तौड़गढ़ की ओर बढ़े। जहाँ जैन दिवाकर श्री चौथमल जी महाराज विराज रहे थे। यहां से सन्त-मण्डली ने निम्बाहेड़ा नगर को पावन किया। यहाँ दोनों महामनस्वी (पं० श्री चौथमल जी महाराज एवं पं० श्री खूबचन्द जी महाराज) ने मिलकर “तप-महात्म्य" पर एक संयुक्त काव्य की सुन्दरतम् रचना कर काव्य साहित्य को उपहार प्रदान किया। वर्षावास सन्निकट था। अतएव मुनिवृन्द अपने-अपने स्वीकृत चौमासी-गाँवों की ओर चल पड़े। तदनुसार हमारे
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