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जन्म-पूर्व : परिवार एवं परिस्थितियाँ | ६
और धारिणी के मन मे अद्भुत शान्ति एव शुचिता व्याप्त हो गयी । एक क्षण के लिए उनके चित्त विकार-शून्य हो गये । आर्यश्री के चरणो के प्रति श्रद्धा और भक्ति का भाव प्रबलतर होने लगा। दोनो ने आर्यश्री के प्रति नमन एव वन्दन किया और अचल मन के साथ यथोचित आसन ग्रहण किये । आर्यश्री की उपदेश-सुधा के सुखद और शान्तिप्रद प्रभाव से ये अभिभूत होने लगे । वे सुध-बुध खोकर इसी सुधा-प्रद होने लगे । अर्द्धनिमीलित नेत्र और करबद्धता से उनके मन की श्रद्धा भावना की गहनता का परिचय मिलता था । इस समय भी धारिणीदेवी के अवचेतन मे कही सतति प्राप्ति के मार्ग मे रहने वाले व्यवधान का विचार अस्तित्व मे था । धारिणीदेवी को उसी का अस्तित्व इस दिशा मे प्रेरित कर रहा था कि आर्यश्री से वह अपने जीवन की अबाधता का आशीर्वाद प्राप्त करे। उसके मन मे ज्यो-ज्यो यह भाव प्रबल होने लगा त्यो ही त्यो अवचेतन मे बसा विचार साकार होने लगा और धारिणीदेवी ने विचार किया कि वह आर्यश्री से विनयपूर्वक प्रश्न करेगी कि किस देव की आराधना से अन्तराय का शमन सभव होगा । आर्यश्री तो परम सामर्थ्यवान है मेरी सहायता अवश्य करेगे । आर्यश्री की यह अनुकम्पा हमारे जीवन का सर्वस्व बन जायेगी-प्राणाधार ही बन जायगी।
इन्ही पलो मे आर्य सुधर्मास्वामी के व्याख्यान मे एक विशेप प्रसग आया। प्रसग था ऋषभदत्त के अनुज का, जिसने अपने जीवन की अन्तिम वेला मे पचपरमेष्ठि नमस्कार मन्त्र का जाप