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[ २६ ] पर भी आधेय को उससे अधिक बताया जाय, अथवा जहाँ विशाल आधेय से भी आधार की अधिकता बताई जाय। अल्प अलंकार इसी का उलटा है, जहाँ अत्यंत अल्प आधेय से भी आधार की अल्पता वर्णित की जाय ।' जब हनुमान् सीता से कहते हैं कि राम तुम्हारे विरह में इतने कृश हो गये हैं कि उनके हाथ की मुंदरी कंकण हो गई है, तो यहाँ अल्प अलंकार है । यहाँ हाथ की मुंदरी (आधेय ) सूक्ष्म है किन्तु कर ( आधार ) की अति-सूक्ष्मता वर्णित की गई है ।
तुम पूछत कहि मुद्रिके मौन होति या नाम।
कंकन पदवी दई तुम बिन या कह राम ॥ पंडितराज जगन्नाथ ने इस अलंकार का कोई. संकेत नहीं किया है। उनके अधिक अलंकार की परिभाषा से पता चलता है कि वे अल्प का समावेश भी अधिक में ही करते हैं। आधाराधेययोरतिविस्तृतस्वसिद्धिफलकमितरस्यातिन्यूनत्वकल्पनमधिकम् ।
__ (रसगंगाधर पृ० ६१०) अलंकारकौस्तुभकार विश्वेश्वर तथा उद्योतकार नागेश ने दीक्षित के अल्प अलंकार का खण्डन किया है। उनकी दलील है कि जहाँ आधार या आधेय में से किसी एक की दूसरे की अपेक्षा. अत्यधिक सूक्ष्मता बताई जाती है, वहाँ प्रकारान्तर से किसी एक के महत्त्व या आधिक्य की ही प्रतीत होती है, जैसे, यदि हम कहें कि विरहिणी नायिका के हाथ का अंगुलीयक उसके हाथ में जपमाल के सदृश हो गया, तो यहाँ कर की अत्यधिक सूक्ष्मला के वर्णन से अंगुलीयक की अधिकता ( महत्ता) ही प्रतीत होती है, अतः कर ( आधार ) अंगुलीयक ( आधेय ) की महत्वकल्पना होने के कारण 'अधिक' का लक्षण ठीक बैठ ही जाता है। अतः इन प्रकरणों में वास्तविक चमत्कार किसी एक पदार्थ के 'आधिक्य' में ही पर्थवसित हो जाता है। इससे अल्प को अधिक से भिन्न अलंकार मानना अयुक्तिसंगत है।
'अल्पं तु सूक्ष्मादाधेयायदाधारस्य सूचमता। मणिमालोमिका तेऽय करे जपवटी. यते ॥' अत्रांगुलीयकस्य सूक्ष्मपरिमाणत्वेऽपि तदपेक्षया करस्य सूचमत्वं वर्णितमित्यल्पाख्यमलंकारांतरमिति, तचिन्त्यम् । आधारापेक्षया माधेयस्य महावकल्पनारूपाधिक्यभेद एव पर्यवसानात ॥
(अलंकारकौस्तुम पृ० ३८०), इसी बात को उद्योत में नागेश ने भी संकेतित किया है :
'तेन यत्र सूचयत्वातिशयवत आधाराधेयावा तदन्यतरस्यातिसूचमत्वं वर्यते तत्राप्या. यम् (अधिक), यथा-'मणिमालोमिका तेऽद्य करे जपवटीयते' अत्र मणिमालामयी ऊर्मिका अंगुलीमितत्वादतिसूचमा, साऽपि विरहिण्याः करे तत्कंकणवत्प्रवेशिता तस्मिनपमालावल्लम्बते इत्युक्त्या ततोऽपि करस्य विरहकार्यादतिसूचमता दर्शिता। एतेन ईशे विषयेऽल्पं नाम पृथगलंकार इत्यपास्तम् ॥
(उद्योत पृ० ५५९) ३. कास्कदीपक:-कारकदीपक का संकेत हम कर चुके हैं कि यह कोई नया अलंकार नहीं है, अपितु प्राचीन आलंकारिकों ने इसे दीपक का ही एक प्रकार माना है।
१. मिथ्याभ्यवसिति:-दीक्षित ने मिथ्याध्यवसिति वहाँ मानी है. जहाँ किसी मिथ्यात्व की. सिद्धि के लिए दूसरे मिथ्यात्व की कल्पना की जाय । जैसे जो व्यक्ति गगनकुसुमों की माला पहनता १. अल्पं तु सूक्ष्मादाधेयाचदाधारस्य सूक्ष्मता ।
मणिमालोमिका तेऽथ करे जपवटीयते ।। (का० ९७ ) ( कुवलयानंद पृ० १६७)