Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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एक महकता कुसुम
दायक है ? कितनी महान है ? इसमें कितनी ||
अधिक कल्याणकारिता है ? इसे संस्कृत के एक -श्री ज्ञानमुनि जी महान पण्डित कितनी सुन्दरता से अभिव्यंजित ||
[श्रमण संघीय सलाहकार करते हैंसाधु शब्द का अर्थ है-'साधयति स्व पर चंदनं शीतलं लोके चंदनादपि चंद्रमा । कार्याणि इति साधुः' जो व्यक्ति अपनी आत्मा को चंद्र-चंदन-योर्मध्ये शीतला साधु संगतिः ॥ साधता है, काम क्रोध मोहादि के आत्मविकारों
संसार में चन्दन शीतल माना जाता है परन्तु म से अपना पिण्ड छुड़ाता है, अपना व दूसरों का हित
चंद्रमा चंदन से भी अधिक शीतल होता है, सम्पन्न करता है, तिण्णाणं तारयाणं के आदर्श को ,
चंदन की शीतलता और चंद्रमा की शीतलत आगे रखकर अपनी जीवनयात्रा सम्पन्न करता है,
भी अधिक शीतल सन्त जनों की संगति होती है। संसार सागर को स्वयं पार करता है और अपनी चरण-शरण में आये व्यक्ति को संसार सागर से
भक्त राज कबीर ने साधु संगति की महत्ता को पार करवाता है, वह व्यक्ति साधू माना जाता है। कितना सुन्दरता से अंगीकार किया है__ साधु जीवन की इसी विशिष्टता एवं कल्याण- कबिरा संगति साधु की ज्यों गांधी का वास, कारिता के कारण संस्कृत तथा हिन्दी के मनीषी जो कुछ गांधी देत नहीं, तो भी वास सुवास, विद्वानों ने बहुत सुन्दर लिखा है
राम बुलावा भेजिया, दिया कबिरा रोय, साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधवः। जो सुख साधु संग में, सो बैकुण्ठ न होय, कालेन फलति तीर्थः सद्यः साधु समागमः ॥
जा पल दरसन साध का, ता पल की बलिहारी, साधु पुरुषों का दर्शन पुण्य रूप होता है, इसी- सत्त नाम रसना बसे, लीजो जन्म सुधारी, लिए साधु तीर्थ स्वरूप माने जाते हैं, तीर्थ समय वे दिन गये अकारथी, संगत भई न सन्त, पर फल देता है परन्तु साधुओं का दर्शन शीघ्र ही ।
प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवन्त, फल दे देता है।
गोस्वामी तुलसीदास जी इसी सत्य को कितनी एक घड़ी आधी घड़ी, आधी से भी आध, सुन्दर पद्धति से अभिव्यक्त करते हैं--
कबीर संगत साध की, कटे कोटि अपराध, मुद मंगलमय सन्त समाजू,
कबीर संगत साध की, साहिब आवे याद, ज्यों जग जंगम तीर्थ राजू,
लेखे में वाही घड़ी, बाकी दिन बरबाद ।। अकथ अलौकिक तीर्थ राऊ,
सच्चा साधु कोई-कोईदेह सद्य फल प्रगट प्रभाऊ, भक्तराज कबीर के शब्दों में सन्त जीवन की अनुभव के महारथियों ने सन्त जीवन की चर्चा | गरिमा को देखिये
करते हुए स्पष्ट रूप से यह उद्घोष किया है कि तीर्थ में फल एक है, सन्त मिले फल चार ।
सच्चे सन्त विरले होते हैं। हर जगह ऐसे विरक्त, सद्गुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार ॥
निस्पृह, जर, जोरू, जमीन के त्यागी, सत्य, अहिंसा
के पावन धाम सन्तों का प्राप्त करना कठिन ही साधु संगति की गरिमा
नहीं अपितु असम्भव होता है। जन्म-जन्मान्तर के __ जैन तथा जैनेतर शास्त्रों में साधुसंगति को शुभ कर्मों का सान्निध्य होने पर ही ऐसे हितकारी, सर्वश्रेष्ठ माना गया है, साधुसंगति कितनी फल- उपकारी और मगलकारी सन्तजनों की चरण
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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