Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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भारती को विभूषित किया। उनकी जीवन निर्माण है। इसी संवाद में व्यक्तित्वों के अंकन होते हैं। श्रद्धा की शिल्पकला बेजोड़ थी, वे स्वयं भी अपने आपमें के पुष्प और अश्रद्धा के कंकड़ इन संवादों में ही कर
धीर, गम्भीर और अनुपम थीं। उनके नेतृत्व में सामान्य कहे जाने वाले व्यक्तियों द्वारा फेंक दिये - हि एक चमत्कार-सा था, उन्हीं के हाथों महासती श्री जाते हैं। ये संवाद अर्थहीन तो नहीं होते हैं।
कुसुमवतीजी म० का निर्माण हुआ अतः चारित्र में भले ही कोई उन्हें अधिक महत्व न दे किन्तु ये . ( वैशिष्ट्य का सम्पादन तो अवश्यम्भावी था ही। संवाद किसी यथार्थ की ओर आंगुल्या निर्देश तो
अपनी पूज्या गुरुणीजी को अपने में भावावतरित कर ही देते हैं । संवादों के इन अनौपचारिक प्रकरणों ! ला करने में महासती श्री कुसुमवती जी अधिकाधिक में प्रायः सभी तरह के व्यक्तियों का समावेश हो
सफल रहीं यह अतिशयोक्तिरहित एक सहज तथ्य जाता है, क्या योगी, क्या भोगी सभी वहाँ चर्चित
है, जिसे कोई भी उनमें स्पष्ट पा सकता है। होते रहते हैं, ये प्रकरण व्यक्तियों में व्यक्तित्वों के ET महासती श्री कुसुमवतीजी म. का इक्यावन वर्ष प्रति अनायास ही निर्णय या मूल्य निर्धारित करते
का संयमी जीवन समाज के सामने खुली किताब- रहते हैं। सा स्पष्ट है। हजारों-हजारों व्यक्तियों ने उसे महासती श्री कुसमवती के प्रति आम जनादेश पढा है। कहीं किसी ने कालष्य की काली रेखा अब से जो प्राप्त हआ वह शुभ ही शुभ रहा, यह उनके
तक उनमें पाई हो ऐसा मेरे जानने में नहीं आया। सधे-सधाए जागरूक जीवन की सबसे बड़ी उप६.१, यह सत्य है कि व्यक्ति का वास्तविक अंकन उनकी लब्धि है जो निश्चय ही इने-गिने व्यक्तियों को ही
भावा धारा का अनुशीलन करके ही किया जा उपलब्ध हुआ करती है। सकता है क्योंकि मानव वास्तव में तो वही है जैसा महासतीजी की वक्तृता ने इनकी शुभ्रता में उसका भावजगत है, किन्तु भावोमियाँ मात्र हार्द के और चार चांद लगाए हैं। इनके प्रवचनों ने जैन तट तक ही आकर ठहर जायें और निकटवर्ती बाह्य जगत में अपना एक स्थान बनाया, इससे भला कौन परिवेश को प्रभावित न करें ऐसा सम्भव नहीं। अपरिचित है । मधुर कण्ठ से निःसृत इनके स्वरों से र सम्यक्त्व एक आध्यात्मिकता है किन्तु शम- एक ऐसा आकर्षण और आल्हाद झरता है कि श्रोता o संवेगादि बाह्य प्रवृत्तियों से उसका कुछ न कुछ तो झूम-झूम उठता है । श्रोताओं की यह भावमग्नता
संसचन हो ही जाता है यह सिद्धान्तमान्य सत्य है। अन्ततः उन्हें विरति पथ पर ही अ महासती जी श्री कुसुमवती का अन्तर्जगत सद्भाव करती है। कुसुमों से कुसुमित एवं सुगन्धित रहा है यह अंतिम महासती लम्बे समय तक अध्ययनशील बने निर्णय नहीं होकर भी एक अनुमानित निर्णय तो है रहे, जैन सिद्धान्ताचार्य आदि परीक्षाएँ उच्च श्रेणी
ही जो उनके बाह्य जगत से सहज अनुमानित होता से उत्तीर्ण की और साथ में साधना के क्षेत्र में भी EO है । महासतीजी का हमारा सम्पर्क बहुत पुराना निरन्तर गतिशील रहे । यही कारण है कि आज
होकर भी बहुत अधिक नहीं रह पाया किन्तु इससे उनका अध्ययन केवल वाक-विलास का साधन नहीं किसी व्यक्तित्व की पहचान में कोई अन्तर नहीं होकर जीवन में साधना से एकाकार हो गया। ज्ञान आया करता । एक अच्छे सुसंस्कृत निर्दोष जीवन और साधना का यह अन्तिम सम्मिलन जीवन के की गुण झंकार दूर-दूर तक सहज ही सुनाई दिया चरम क्षणों तक चलता रहे। करती है, फिर चाहे कोई उसे सुनना चाहे या नहीं जिनशासन इनके सद्प्रयत्नकृत प्रगति पुष्पों से भी सुनना चाहे।
सुसज्जित सुवासित होता रहे, इसी शुभ कामना के व्यक्ति चर्चा यह आम व्यक्तियों का एक सामान्य साथ". संवाद है जो निरन्तर जहाँ-तहाँ चलता ही रहता
HOTO
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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