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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] के हाथों हारने और छिनने नहीं दिया...ोह, क्रोध के प्रहार मेरी माँ पर क्यों हुए ? उस सबका दोषी क्या मैं ही नहीं हूँ ? क्योंकि उस क्रोध की जड़ मेरी त्रुटि में है ।...हाँ, मैं ही उसका दोषी हूँ।... ओह, मालिक, कैसा अवहनीय यह मेरा दोष है ? इससे, भीतर अपने ऊपर बड़ी ग्लानि उपजती है। प्रभु, इससे कैसे मेरा उद्धार होगा ?-ओह, अब मैं समझा । तेरी दया अपरम्पार है। तूने माँ को इसीलिए बीच में भेजा कि मैं देख लूँ कि मेरी त्रुटि कितनी भीषण है और वह कैसे अत्याचार को जन्म दे सकती है। श्रोह ! मैं यह साफ़ देखता हूँ। मैं सह नहीं सकता। मेरे भीतर बैठा वह राक्षस यों दूसरों के हाथों दुष्कृत्य बनकर स्पष्ट अपनी पूरी भीषणता में मेरे सामने आ खड़ा हुआ है। ओह, मुझसे देखा नहीं जाता, झेला नहीं जाता । मेरा इससे उद्धार कर, त्राण दे । इसको मुझ में से उखाड़ फेंक । ओह, मालिक, मैं इसे अब छोटा समझने की भूल नहीं करूँगा। माँ के रूप में जो अपनी त्रुटि के उत्तरदायित्व के भारीपन की दीक्षा आग के और आँसू के अक्षरों में तूने मेरे भीतर खींच दी है, उसे भुलाऊँगा नहीं।...ओह, मेरी रक्षा कर । सम्पूर्णतः अपना बना ले । तेरा प्रतिरूप, तू ही होकर मैं वहाँ विचरूँ। बस एक धब्बा रहूँ जो कि तेरी शुद्धता से शुद्ध हो, जो स्वयं कुछ भी न हो, शून्य हो; जो बस तुझे चीन्हने के लिए चिन्ह हो, याद करने के लिए आधार हो। मैं वह रहूँ जो सदा तेरी याद दिलाये, तुझे प्रकाशित करे, तुझे प्रतिष्ठित करे, तुझे सम्पन्न करे, तुझसे जो अभिन्न होकर रहे
जब अगले रोज़ वह साधु फिर ठीक उसी वक्त, द्वार पर दोतीन सदा देने के बाद, भीख माँगने अन्दर चला आया, तो उन महिला को बड़ा अचरज हुआ। आशंका भी हुई । वह नियमित