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श०१ उ०४ प्र०१५५
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भगवती-सूची
१३२
१२६-१३१ कर्मबंध के कारणों की परम्परा
कांक्षामोहनीय ख- जीव का उत्थान आदि से सम्बन्ध
उदीरणा, गर्दा और संवर आत्मकृत है १३३ अनुदीर्ण तथा उदीरणा योग्य कर्म की उदीरणा १३४ उत्थान आदि से कर्मों की उदीरणा १३५ क- उपशमन गर्दा और संवर आत्मकृत है
ख- अनुदीर्ण कर्म का उपशमन १३६ उत्थान आदि से कर्म का उपशमन ३७ क- वेदन और गरे आत्मकृत है
ख- उदीर्ण का वेदन
ग- उत्थान आदि से कर्म का वेदन १३८ क- निर्जरा आत्मकृत है
ख- उदय में आये हुए कर्मों की निर्जरा
ग- उत्थान आदि से कर्मों की निर्जरा १३६-१४२ चौवीस दण्डकों में कांक्षामोहनीय कर्म का बेदन १४३-१४५ श्रमण निर्ग्रन्थों का , , ,,
चतुर्थ कर्म प्रकृति उद्देशक
आठ कर्म प्रकृतियां १४७ मोहनीय कर्म के उदयकाल में परलोक प्रयाण १४८-१४६
, बाल-वीर्य से परलोक प्रयाण १५०-१५१ क- मोहनीय के उदयकाल में बालवीर्य से अपक्रमण
___ख- पंडित वीर्य से मोहनीय का उपशमन १५२ आत्मा द्वारा ही अपक्रमण होता है १५३-१५४ मोहनीय कर्म का वेदन होने पर ही मुक्ति. १५५ क- दो प्रकार के कर्म
ख- दो प्रकार की कर्म वेदना
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