Book Title: Jainagama Nirdeshika
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 994
________________ अ० ५ पृ. ல் पृ. bibi bibi पृ. ८६ ६ १ हद पृ. १०० पृ. ८६ पृ. ८६ पृ. १०२ पृ. १०२ पृ. १०३ पृ. १०६ पृ. १०६ पृ. ११६ पृ. ११७ पृ. ११८ ६६६ महानिशीथ-सूची यहाँ लिखा है कि यहाँ आदर्शप्रति भ्रष्ट हैं अतएव तज्य यहाँ अन्य वाचनाओं से संशोधन करलें अंत में लिखा है - तइयज्झयणं ॥ उद्देशा १६ ।। चतुर्थ अध्ययन कुसंग के दृष्टान्तरूप सुमति का कथानक साधुओं के कितनेक शिथिलाचारों की गणना प्रश्नव्याकरण वृद्ध विवरण का उल्लेख शिथिलाचार के समर्थन में दोष शिथिलाचार से व्रतभंग चौथे अध्ययन का सार यह है संसार होता है और कुशील मिलती है । कि कुशील संसर्ग से अनंत संसर्ग छोड़नेवाले की सिद्धि हरिभद्र का मत है कि चौथे अध्याय के कितने ही आलापक श्रद्धा योग्य नहीं हैं, परन्तु वृद्धवाद के अनुसार इसमें शंका नहीं करनी चाहिए । स्थानांग आदि में कहीं भी इस अध्ययनगत मूल बात का समर्थन नहीं किया गया है यह भी हरिभद्राचार्य ने लिखा है । पंचम अध्ययन - णवणीयसारं गच्छ में कैसे रहना- इसकी चर्चा गच्छ की मर्यादा दुप्पसह आचार्य तक रहेगी । गच्छ के स्वरूप का वर्णन, और तत्कालीन शिथिलाचारों का उल्लेख अंतिम होनेवाले साधु साध्वी, श्रावक और श्राविका इन चार द्वारा मर्यादा पालन | सज्जंभव ( शय्यंभव ) को आसन्नकालीन बताया गया है। तीर्थयात्रा से साधु का असंयम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 992 993 994 995 996 997 998