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विषय प्रवेश परन्तु इसके साथ शास्त्रोंमें ऐसे वचन भी बहुलतासे , उपलब्ध होते. हैं जिनमें अभिधेयार्थको मुख्यता न होकर लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थको ही मुख्यता रहती है। इसे ठीक तरहसे समझनेके लिए उदाहरणस्वरूप 'गङ्गायां घोषः, मचा: क्रोशन्ति, धनुर्धावति' ये वचन प्रयोग लिए जा सकते हैं । 'गङ्गायां घोषः' इसका अभिधेयार्थ है-गाकी धारमें घोष, लक्ष्यार्थ है-गंगाके निकटवर्ती प्रदेशमें घोष और व्यंग्यार्थ हैवांगाके निकट शीतल वातावरणमें घोष । 'मंचाः क्रोशन्ति' का अभिधेयार्थ हैमंच चिल्लाते है, लक्ष्यार्थ है-मंचपर बैठे हुए पुरुष चिल्लाते हैं। तथा 'धनुर्षावति' का अभिधेयार्थ है-धनुष दौड़ता है और लक्ष्यार्थ है-धनुष युक्त पुरुष दौड़ता है। इस प्रकार एक-एक शब्द प्रयोगके ये क्रमशः तीन और दो-दो अर्थ हैं। परन्तु उनमेंसे प्रकृतमें इन शब्द प्रयोगोंका अभिधेयार्थ ग्राह्य नहीं है, क्योंकि न तो गंगाकी धारमें घोषका होना ही सम्भव है ओर न ही मञ्चका चिल्लाना या धनुषका दौड़ना ही सम्भव है । फिर भी व्यवहारमें ऐसे वचन प्रयोग होते हुए देखे जाते हैं, अतएव साहित्यमें भी इन्हे स्थान दिया गया है। फलस्वरूप जहाँ भी ऐसे वचनप्रयोग उपलब्ध हों वहाँ उनका अभिधेयार्थ न लेकर लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ हो लेना चाहिए । यही बात प्रकृतमें भी जाननी चाहिए।
इसमें सन्देह नहीं कि आगममें व्यवहारनयकी अपेक्षा एक द्रव्यको विवक्षित पर्यायकी अपेक्षा दूसरे द्रव्यके परिणामस्वरूप कार्यका कर्ता आदि कहा गया है। परन्तु वहाँ पर वह कथन अभिधेयार्थको ध्यानमें रखकर किया गया है या लक्ष्यार्थको ध्यानमें रखकर किया गया है इसे समझकर ही इष्टार्थका निर्णय करना चाहिए।
प्रकृतमें ऐसे कथन द्वारा निश्चयार्थ की सिद्धि की जाती है, क्योंकि वह वास्तविक है । यदि इस अभिप्रायको ध्यानमें रखकर उक्त प्रकारका वचन प्रयोग किया जाता है तो उसका अभिधेयार्थ असत्य होने पर भी लोक व्यवहारमें लक्ष्यार्थ (इष्टार्थ) की दृष्टिसे वह असत्य नहीं माना जाता। साथ ही आचार्य कुन्दकुन्दने समयप्राभूतमें जो 'जह ण वि सक्कमणज्जो' इत्यादि सूत्रगाथा निबद्ध की है वह भी इस गर्भित अर्थको सूचित करनेके लिए ही निबद्ध की है। उसमें कहा गया है कि जिस प्रकार अनार्य पुरुषको अनार्य भाषाके बिना किसी भी वस्तुका स्वरूप ग्रहण करनेके लिए कोई
१. लक्षणा दो प्रकारकी होती है-हिमूला और प्रयोजनवती । रूढमूला