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" निश्चय-व्यवहारमीमांसास हमें इस नये मतका भान हो गया था। उस समय हमने इसपर नापति भी की थी। पर ऐसा लगता है कि ऐसे महाशयोंको आसमसम्मत मासे कोई प्रयोजन नहीं है। जो अपने मनमें विकल्प उठा उसको लिखना और उसे ही भागम कहना यह इनका एक प्रकारसे उद्देश्य बन गया है। अस्तु, यहाँ हमें इतना ही लिखना है कि बागममें जो भी तस्वप्ररूपणा हुई है वह कहाँ किस दृष्टिकोणसे को गई है इसे स्पष्ट करनेके लिये ही आगममें नयोंके भेद-प्रभेद दृष्टिगोचर होते हैं और इसीलिये ही आलापपद्धति और नयचक्र ादिमें उन नयोके स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए उनके आगमसम्मत उदाहरण भी दे दिये मये हैं। अनगारधर्मामृतमे भी इसीलिये उन नयोंके मेद-प्रभेदोंका उदाहरण सहित निर्देश किया गया है।
(३) प्रकृतमें खासकर स्वरूप प्राप्तिके परम साधनभूत अध्यात्म और तदनुषंगी चरणानुयोगकी दृष्टिसे विचार करना है। यह तो सुविदित बात है कि जो प्ररूपणा अभेद और अनुपचरितरूपसे की जाती है, शुद्ध निश्चयनयका विषय वही प्ररूपणा मानी जाती है, इस दृष्टिसे विचार करनेपर अध्यात्मप्ररूपणा और चरणानुयोगकी प्ररूपणामें जो अन्तर है वह हमारी समझमें आ जाता है। और इसीलिये समयसारादि अध्यात्म ग्रन्थों में एकत्वकी प्राप्तिमें परम साधक जितनी भी प्ररूपणा हुई है वह एक शुद्ध निश्चयनयके अन्तर्गत ही मानी गई है। तथा इससे अतिरिक्त शेष समस्त प्ररूपणाको व्यवहारनयके विषयके रूपमें स्वीकार किया मया है। किन्तु चरणानुयोगकी प्ररूपणाकी यह स्थिति नहीं है, क्योंकि उसमें आत्माको शुद्ध और अशुद्ध दोनों रूपमें स्वीकार करके प्ररूपणा हुई है। यही कारण है कि यहाँ शुद-बुद्ध एक आत्माको शुद्ध निश्चयनयका विषय स्वीकार किया गया है और रागादिरूप आत्माको अशुद्ध निश्चयनयका विषय स्वीकार किया गया है। उसका भी कारण यह है कि चरणानुयोगमें मोक्षप्राप्तिके साधनभूत स्वतन्त्र मार्गका निर्देशन होते हुए भी वह ज्ञानीकी सबिकल्प अवस्थामें सहज सीमाका ख्यापन करनेके प्रयोजनसे ही लिपिबद्ध हुआ है। ____अध्यात्ममें तो यह स्वीकार किया ही गया है कि जो परमार्थसे बाह्य है वह चाहे जितने व्रत धारण करे, नियमोंका पालन करे, पर वह निर्वाणका अधिकारी नहीं हो सकता। चरणानुयोग भी इसे स्वीकार करता है। रलकरण्यश्रावकाचारमें कहा है कि जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे सम्पन्न है वही राग-द्वेषकी निवृत्तिके लिये व्रत-नियम