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जनतस्त्वमीमांसा
एकान्त दो प्रकारका है—सम्यक् एकान्त और मिथ्या एकान्त | अनेकान्त भी दो प्रकारका है- सम्यक् अनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त | खुलासा इस प्रकार है ।
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प्रमाणके द्वारा निरूपित वस्तुके एक देशको सयुक्तिक ग्रहण करनेवाला सम्यक् एकान्त है । एक धर्मका सर्वथा अवधारण करके अन्य धर्मोका निराकरण करनेवाला मिथ्या एकान्त है। तथा एक वस्तुमें युक्ति और आगमसे अविरुद्ध अनेक विरोधी धर्मोको ग्रहण करनेवाला सम्यक् अनेकान्त है और वस्तुको सत्-असत् आदि स्वभावसे शून्य कहकर उसमें अनेक धर्मोकी मिथ्याकल्पना करनेवाला मिथ्या अनेकान्त है | इनमें सम्यक् एकान्त नय कहलाता है और सम्यक् अनेकान्त प्रमाण कहलाता है । उक्त तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य समन्तभद्र स्वयंभूस्तोत्र में कहते हैं
अनेकान्तोऽप्यनेकास्त
प्रमाण - नयसाधनः ।
अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितान्नयात् ॥ १०३ ॥
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हे भगवान् आपके शासनमें प्रमाण और नयके द्वारा साधित होनेसे अनेकान्त भी अनेकान्त स्वरूप है । प्रमाणकी अपेक्षा अनेकान्तस्वरूप है और विवक्षित नयको अपेक्षा एकान्तस्वरूप है ॥१०३॥
विकलादेश और सप्तभंगी
इस प्रकार विवक्षित नयकी मुख्यतासे वस्तुके कथंचित् एकान्तस्वरूप सिद्ध होनेपर विकलादेश क्या है और उस दृष्टिसे सप्तभंगी कैसे बनती है इस पर ऊहापोह करते है --
एक अखण्ड वस्तुमें गुणभेदसे अंश कल्पना करना विकलादेश है । इसमें भी कालादिकी अपेक्षा भेदवृत्ति और भेदोपचारसे सप्तभंगी घटित हो जाती हैं । यथा 'स्यादस्त्येव जीव' यह प्रथम भंग है तथा 'स्यान्नास्त्येव जीव' यह दूसरा भंग है। इसी प्रकार उत्तर पाँच भंग जान लेने चाहिये । सर्व सामान्य आदि किसी एक द्रव्यार्थादेशकी अपेक्षा पहला विकलादेश है । इस भंग में वस्तुमें यद्यपि, अन्य धर्म विद्यमान हैं तो भी atorfant अपेक्षा भेद विवक्षा होनेसे शब्द द्वारा वाच्यरूपसे वे स्वीकृत नहीं हैं। न तो उनका विधान ही है और न प्रतिषेध ही है। इसी प्रकार अन्य भगोंमें भी स्वविवक्षित धर्मकी प्रधानता रहती है । तथा अन्य