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जेनतत्त्वमीमांसा
शेय दो प्रकारका है—अन्तः ज्ञेय और बहिःज्ञेय । ज्ञेयको जाननेरूप स्वयं जो ज्ञानपरिणाम हुआ तत्स्वरूप अन्तः ज्ञेय है, इस अपेक्षा केवली जिन स्वयंको जानते-देखते हैं यह निश्चित होता है । और बहिःशेय लोकालोकवर्ती समस्त पदार्थ हैं । अतः उसी बातको जब इनकी अपेक्षा कथन करते हैं तब केवली जिन लोकालोकको जानता देखता है यह कहा जाता है । वस्तु एक है उसका कथन दो प्रकारसे किया गया हैं यह seerat है ।
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केवलज्ञान स्वयं को जानता देखता है इसका अर्थ हो यह है कि वह अलोकसहित लोकके समस्त पदार्थो को प्रतिसमय युगपत् जानता-देखता है, क्योंकि सभी पदार्थ ज्ञानगत होनेसे केवलज्ञान सब पदार्थों को जानतादेखता है, परसापेक्ष यह व्यवहार किया जाता है ।
शका - वस्तुत यदि ज्ञान स्वाश्रित है, पराश्रित नही है तो ससार अवस्था में इन्द्रियो ज्ञानकी उत्पत्ति क्यों मानी जाती है ?
समाधान - किसी भी ज्ञानको उत्पत्ति होती तो स्वय ही है, इन्द्रियों से ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होती, क्योकि इन्द्रियाँ जड़ है । इसलिये वे चेतनके किसी भी धर्मको उत्पन्न करनेमें स्वयं असमर्थ हैं । केवल विवक्षित ज्ञानके साथ विवक्षित इन्द्रियका अविनाभाव देखकर यह व्यवहार किया जाता है कि चक्षुसे रूपकी उपलब्धि हुई आदि ।
शंका- केवली जिनके इस प्रकारके व्यवहारको स्वीकार करनेमें क्या आपत्ति है ?
समाधान - ऐसा स्वीकार करने पर ससार और मुक्त ये दो अवस्थाऐं नहीं बनती। इतना ही नहीं, किसी भी द्रव्यको परमार्थसे स्वसहाय मानना भी नहीं बन सकता । इसलिये यही मानना उचित है कि अपनेअपने स्वभावानुसार जब जिस द्रव्यका जो परिणाम होता है वह स्वयं होता है । सयोगकाल में अविनाभावसम्बन्धवश बाह्य पदार्थ मात्र उसका सूचक होता है ।
शंका -- जीव पदार्थ द्रव्यार्थिकनयसे भले ही स्वसहाय रहा आवे | पर वह पर्यायार्थिकनयसे भी स्वसहाय है यह मानना उचित नहीं है ?
समाधान - धर्मादि द्रव्योंके समान जीव पदार्थ भी उत्पाद-व्यय धोव्यस्वरूप है । इनमेंसे धौव्यरूपसे वस्तुको स्वीकार करनेवाला द्रव्यार्थिक नय है और उत्पाद-व्ययरूपसे वस्तुको स्वीकार करनेवाला