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केवलमानस्वभावमीमांसा,
४०७ . उनसे मनन्त वर्गस्थान मागे जानेपर नियंच अविरत सम्यग्दृष्टिके जघन्य क्षायिक लक्षिके. अविभागप्रतिच्छेद उत्पन्न होते हैं। उसके बाद वर्गशलाका आदिके क्रमसे आगे जाने पर केवलज्ञानके अच छेदोंका क्रमसे आठवाँ, सातवा, छठा, पांचवा, चौथा, तीसरा, दूसरा और पहला वर्गमल उत्पन्न होता है। पश्चात् इस प्रथम वर्गमूलको प्रथम वर्गमूलसे गुणा करने पर केवलज्ञानके अबच्छेद उत्पन्न होते हैं। यही उत्कृष्टक्षायिकलब्धि है तथा यही द्विरूप वर्गधाराका अन्तिम स्थान है। ___ इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि लोकमें ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो केवलज्ञानके विषयके बाहर है। उसका माहात्म्य अपरिमित है। इसी माहात्म्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसारमें कहते हैं
जो ण विजाणदि जुगवं अत्थे तिक्कालिगे. तिहुवणत्थे । गाई तस्स ण सक्कं सपज्जयं दव्यमेगं वा ॥४८॥ दव्वं अणंतपज्जयमणताणि दम्वजावाणि ।
ण विजाणदि जदि जुगवं किध सो सम्वाणि जाणादि ।। ४९ ॥ जो तीन लोक और त्रिकालवर्ती पदार्थोको युगपत् नही जानना, वह समस्त पर्याय सहित एक द्रव्यको नहीं जान सकता। इसी प्रकार जो अनन्त पर्याय सहित एक द्रव्यको तथा अनन्त द्रव्य समूहको यदि युगपत् नहीं जानता तो वह सबको कैसे जान सकेगा ॥४८-४९।। ___ यह एक ऐसा प्रमाण है जिससे इस तथ्यकी पुष्टि होती है कि जो अपनी समग्र पर्यायसहित स्वयं को पूरी तरहसे जान लेता है वह अलोक सहित तीन लोक और त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थो को जानने में पूरी तरहसे समर्थ है। इसलिये जो महाशय अपने छपस्थज्ञानके बल पर यह कल्पना करते हैं कि केवलज्ञान वर्तमान पर्यायोंको तो समग्र भावसे जानता है, अतीत और अनागत पर्यायोंको वह मात्र शक्तिरूपसे ही जानता है उनकी यह कल्पना सुतराँ खण्डित हो जाती है। विशेषु किमधिकम् ।
कुछ महाशय यह भी प्रचारित करते रहते हैं कि केवलज्ञानमें अनागत पर्यायें नियत क्रमसे ही प्रतिभासित मान ली जाय तो इससे एक तो एकान्त नियतिवादका प्रसंग आता है दूसरे आगे किये जानेवाले कार्योके लिए पुरुषार्थ करनेका कोई प्रयोजन ही नहीं रह जाता। इसलिये अनागत पर्यायोंके विषयमें यही मानना उचित है कि अब जैसी सामग्री मिलती है, कार्य उसोके अनुसार होता है और केवलज्ञान भी ऐसा ही जानता है।