Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

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Page 450
________________ उपायान-निमित्तसंवाद १७ ', 'उमाको र जो सुख को तूं सुख कह सो सुख तो सुख नाहिं। ये सुख दुख के मूल है सुल अविनाशी माहिं ॥३५॥ जिस सुखको सुख कहता है वह सुख सुख नहीं है। ये सांसारिक सुख दुखके मूल (कारण) हैं। सच्चा सुख अविनाशी आत्माको प्राप्तिमें है ॥३५॥ निमितको ओरसे प्रान .. ninance अविनाशी घट घट बसे सुख क्यों विलसत नाहिं। Tantrt शुभ निमित्त के योग विन परे परे विललाहिं ॥३६॥ अविनाशी आत्मा घट-घटमें निवास करता है फिर सुख प्रकाशमें क्यों नहीं आता। शुभ निमित्तका योग न मिलनेसे परे परे बिललाते है अर्थात् दुखा होते हैं ॥३६॥ उपादानको बोरसे उत्तर शुभ निमित्त इस जीव को मिल्यो कंड भवसार। 4 इक सम्यग्दर्श बिन भटकत फियो गैवार ॥३७॥ इस जीवको शुभ निमित्त कई भवोंमें मिले, परन्तु एक सम्यग्दर्शनके बिना यह मूर्ख हुआ भटक रहा है ॥३७॥ निमितको ओरले प्रश्न Emain सम्यग्दर्श भये कहा त्वरित मुक्ति में जाहिं। का आगे ध्यान निमित्त है से शिव को पहुँचाहिं ॥३८॥ सम्यग्दर्शन होनेसे क्या जीव शीघ्र ही मोक्षमें चले जाते हैं ? आगे ध्यान निमित्त है । वह मोक्षमें पहुंचाता है ॥३८॥ उपादानकी बोरसे उत्तर छोर ध्यान की धारणा भोर योग की रीत । तोरि कर्म के बाल को ओर लई शिव प्रीत ॥३९॥ जो जीव ध्यानकी धारणाको छोड़कर और योगकी परिपाटीको मोड़कर कर्मक जालको तोड़ देते हैं वे मोक्षसे प्रीति मोड़ते हैं अर्थात् मोक्ष . जाते हैं ॥३२॥

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