Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

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Page 452
________________ उपादान - निमित्तसंवाद संदकी प्रामाणिकताका निर्देश जो जाने गुण ब्रह्म के सो जाने यह भेद | साख जिनागमसो मिले तो मत कोज्यो वेद ॥४५॥ ४१९ जो ब्रह्मके गुणोंको जानता है वही इसके रहस्यको जान सकता है । इस (संवाद) की साक्षी जिनागमसे मिलती है, इसलिए खेद नहीं करना ॥४५॥ ग्रन्थकर्ताका नाम और स्थान नगर आगरा अग्र है जैनी जन को वास । तिह थानक रचना करी 'भैया' स्वमति प्रकाश ||४६ ॥ आगरा नगर मुख्य है । जहाँ जेनी लोगोंका निवास है । उस स्थान में भैया भगवतीदासने अपनी मतिके प्रकाशके अनुसार यह रचना की है ॥४६॥ रचनाकाल सवत् विक्रम भूप को सतरहसे पंचास 1 फाल्गुन पहले पक्ष में दशों दिशा परकाश ॥ ४७ ॥ विक्रम सम्वत् १७५० के फाल्गुन मासके प्रथम पक्षमे दशों दिशामें प्रकाशके अर्थ इस संवादकी रचना की गई है ||४७ || कविवर भैया भगवतीदासने उपादान और निमित्तका यह संवाद लिखा है । यह केवल सवाद ही नहीं है । किन्तु इसमें उन्होंने विवेचनका जो क्रम रखा है उससे प्रतीत होता है कि संसारी जीवके मोक्षमार्गके सन्मुख होनेपर उसके मनसे निमित्तका विकल्प किस प्रकार के हटकर उपादानका जोर बढ़ जाता है। उनके विवेचनकी खूबी यह है कि बाह्यमें कहाँ किस अवस्थाके होने में कौन निमित्त है इसे भी वे बतलाते जाते है और साथ ही वे यह भी बतलाते जाते हैं कि उपादानकी तैयारी किये बिना तदनुरूप अन्तरङ्ग अवस्थाका प्रकाश होना त्रिकाल में भी सम्भव नहीं है, इसलिए जो उपादानकी तैयारी है वहीं उस अवस्थाके प्रकाशका मुख्य हेतु है । यदि उपादानकी वैसी तैयारी न हो तो उस अवस्थाके अनुरूप बाह्य निमित्त भी नहीं मिलते, इसलिए कार्य सिद्धिमें मुख्य प्रयोजक उपादानको ही समझना चाहिये। सम्यग्दृष्टि 'जीवst इस सत्यका दर्शन हो जाता है. इसलिए वह अपने अन्तरड़की तैयारीको ही कार्यका प्रयोजक मानकर उसीकी उपासनामें दृढ़ प्रतिज्ञ

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