Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 451
________________ ४१८ जैनतत्वमीमांसा निमितको हारमें उपादानको जोत तब निमित्त हार्यो तहाँ अब नहिं जोर बसाय । उपादान शिवलोक में पहुँच्यो कर्म खपाय ॥४०॥ तब वहाँ निमित्त हार जाता है। अब उसका कुछ जोर नहीं चलता। और उपादान कोका क्षयकर शिवलोकमें पहुंच जाता है ॥४०॥ उपादान जीत्यो तहा निज बल कर परकास । सुख अनन्त ध्रुव भोगवे अंत न वरन्यो ताम ॥४१॥ उस अवस्थाके होनेपर अपने बल (वीर्य) का प्रकाश कर उपादान जीत जाता है और उस अनन्त शाश्वत सुखका भोग करता है जिसका अन्त नहीं कहा गया है ॥४१॥ अन्तिम निष्कर्ष उपादान अरु निमित्त ये सब जीवन पै वीर । जो निज शक्ति संभार ही सो पहुँचे भवतीर ॥४२॥ उपादान और निमित्त ये सभी जीवोंके हैं, किन्तु जो वोर अपनो शक्तिको सम्हाल करते है वे संसारसे पार होते हैं ॥४२॥ उपादानको महिमा 'भैया' महिमा ब्रह्म की कैमे वरनी जाय । वचन अगोचर वस्तु है कहि वो वचन बताय ॥४३।। हे भाई ! ब्रह्म (आत्मा) की महिमाका कैसे वर्णन किया जाय ? वचन-अगोचर वस्तु है, उसको वचन बनाकर कही है ॥४३॥ संवादका फल उपादान अरु निमित्त को सरस बन्यौ संवाद । समदृष्टि को सरल है मूरख को बकबाद ॥४४॥ उपादान और निमित्तका यह सरस संवाद बना है। यह सम्यग्दृष्टिके लिए सरल है। परन्तु मूर्ख (अज्ञानी) के लिए बकवाद प्रतीत होगा ।।४४॥ १ 'भैया' यह कविवरको स्वयंकी उपाधि है। वे इस दोहेमें अपनेको सम्बोधित करके कह रहे है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 449 450 451 452 453 454 455 456