Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

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Page 449
________________ जेनतत्त्वमीमांसा सकते हैं ? मुक्तिके लिए निमित्तरूपसे पाँच महावत तो प्रगट हैं हो और .. दूसरी क्रियाएँ भी प्रसिद्ध हैं ॥३०॥ उपादानकी बोरसे उत्तर पंच महावत जोग त्रय और सकल व्यवहार। परको निगित्त खपायके तब पहुंचे भव पार ॥३१॥ पांच महाव्रत, तीन योग और सकल व्यवहाररूप जो परनिमित्त है उसे खपा करके ही यह जीव संसारसे पार होता है ॥३१॥ । [यहाँपर पांच महाव्रत आदिरूप बाह्य व्यापारसे चित्तवृत्ति हटाकर | अन्तर्दृष्टि होना ही निमित्तोंको खपा देना है। ] निमित्तको ओरसे प्रश्न से कह निमित्त जगमें बडयौ मोतें बडो न कोय । - तीन लोक के नाथ सब मो प्रसाद से होय ॥३२॥ A निमित्त कहता है कि जगत्में मैं बड़ा हूँ, मुझसे बड़ा कोई नहीं है, " जो-जो तीन लोकके नाथ होते हैं वे सब मेरे प्रसादसे होते हैं ॥३२।। तीमतीक उपादानको ओरसे उत्तर उपादान कहै तू कहा चहुँ गतिमें ले जाय । तो प्रसाद तें जीव सब दुःखी होहिं रे भाय ॥३३।। उपादान कहता है कि तूं कौन है ? तूं हो तो चारों गतियोंमें ले जाता है । हे भाई ! तेरे ही प्रसादसे सब जीव दुखी होते हैं ॥३३॥ निमित्ताधीन दृष्टि होनेसे यह जीव चारों गतियोंमें परिभ्रमण करता है और अनन्त दुखोंका पात्र होता है यह दिखलानेके लिए यहाँ पर ये कार्य व्यवहारनयसे निमित्तके कहे गये है] ही निमित्तकी ओरसे प्रश्न ? कह निमित्त जो दुख सहै सो तुम हमहि लगाय । सुली कौन से होत है ताको देहु बताय ॥३४॥ निमित्त कहता है कि जीव जो दुख सहता है उसका दोष तुम हमी पर लगाते हो । किन्तु किस कारणसे जीव सुखी होता है उस कारणको भी तो बतलामो ॥३४॥

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