Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

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Page 447
________________ जेनतस्वममांसा अनादिकालसे कहीं बिना निमित्तके ही उपयोग उल्टा हो रहा है ? ऐसी बात हे उपादान ! तुम्हारे लिए योग्य नहीं है ||२०|| उपादानकी ओरसे उत्तर ४१४ उन्य हो रहा है। उपादान कहै रे निमित्त । हम पै कही न जाय । ऐसी ही जिन केवली देखे त्रिभुवन राय ॥२१॥ उपादान कहता है है निमित्त ! वह बात मेरी कही हुई नहीं है । तीन लोकके स्वामी केवली जिनेन्द्रने इसी प्रकार देखा है ||२१|| fafeलको ओरसे प्रश्न जो देख्यो भगवानने सो ही हम तुम संग समाधिके बली । जो भगवान् ने देखा है वही सच है किन्तु हमारा और तुम्हारा सम्बन्ध अनादिकाल से हो रहा है, इसलिये अपन दोनोंमेंसे बलवान् किसे कहना । दोनों समान हैं ऐसा तो मान लो ||२२|| [ निमित्तके कहने का तात्पर्य यह है कि जब हमारा और तुम्हारा अनादिकाल से सम्बन्ध हो रहा है तो केवल स्वयंको बलवान् नहीं कह सकते । कार्य उत्पत्तिमें दोनोंका स्थान बराबर है । ] 714 सांचो आहि । कहोगे कांहि ||२२|| ही जो उपजत बिनसत रहे बली कहाते सोय ||२३|| उपादान कहता है कि जिसका नाश नहीं होता वह बलवान् है । जो उत्पन्न होता है और विनाशको प्राप्त हो जाता है वह बलवान् कैसे हो सकता है ||२३|| जीवन उपादानकी ओरसे उत्तर / उपादान कहँ वह बली जाकी नाश न होय । · निमितकी ओरसे उत्तर उपादान ! तुम जोर हो तो क्यो लेत अहार । पर निमित्त के योग सों जीवत सब संसार ||२४|| हे उपादान ! यदि तुम बलवान् हो तो आहार क्यों लेते हो ? सब संसारी जीव पर निमित्तके योगसे जीते हैं ||२४|| उपादानकी ओरसे उत्तर जो अहार के जोग सों जीवत हे जनमाहि । तो वासी संसार के मरते कोऊ नाहि ॥ २५ ॥

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