Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

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Page 444
________________ . उपादान-निमित्तसंवाद .. ४५१ , उपादान कहता है हे निमित! हूँ क्या गुमान करता है, जो जीव सम्यग्दृष्टि हैं वे मुझे जानते हैं ॥ ५॥ . . , . . . . . . बिमितकी ओरने प्रश्न कह जीव सब जगत को जो निमित्त सोई होय । उपादानकी बात को पूछे नाहीं कोय ॥६॥ जगतके सब जीव कहते है कि जो (जैसा) निमित्त होता है वही ... (वैसा ही) कार्य होता है । उपादानकी बातको कोई नहीं पूछता ॥ ६॥ उपादानको बीरले उत्तर उपादान बिन निमित्त तू कर न सके इक क्राण । कहा भयो जग ना लहं जानत है जिनराज ॥७॥ उपादानके बिना हे निमित्त ! तूं एक भी कार्य नहीं कर सकता। इसे जगत नहीं देखता तो क्या हुआ, यह सब जिनराज जानते हैं।॥७॥ [ यहाँपर निमित्तमें कर्तृत्वका आरोपकर कविवरने उपादानके द्वारा यह कहलाया है कि उपादानके बिना हे निमित्त ! तूं एक भी कार्य नहीं कर सकता। निमितको मोरसे प्रश्न शा) देव जिनेश्वर गुरु यती अरु जिन आगम सार। इह निमित्त ते जीव सब पावत है भवपार ॥८॥ जिनेश्वर देव, दिगम्बर गुरु और उत्कृष्ट जिनागम इन निमित्तोंसे सब जीव इस लोकमें संसारसे पार होते हैं ॥ ८॥ उपादानकी ओरसे उत्तर यह निमित्त इस जीव के मिल्यो अनन्तीवार । उपादान पलटयो नहीं तो भटक्यो संसार ॥९॥ ये निमित्त इस जीवको अनन्तवार मिले है किन्तु उपादान नहीं पलटा, अतः संसारमें भटकता रहा ॥९॥ निमितको मोरसे प्रश्न के केवलि के साधुके निकट भव्य जो होय। सो क्षायिक सम्यक् सहै यह निमित्त बल जोय ॥१०॥ या तो केवली भगवान के निकट या साधु (श्रुतकेवली) के निकट

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