Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

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Page 438
________________ ...... केवलगानस्वमानमीमांसा. ४०५'. बसलाया है कि मनाविकालसे अब तक जितने जीव मुक हुए, संसार राशिमेसे उसने जीवोंके कम होनेपर भी संसार राशि पूर्ववत् अनन्तानन्त बनी हुई है। प्रमाणमें यह वचन पर्याप्त होगा- ..... - एणिगोवसरीरे दम्बमाणदो दिवा। सिदेहि अणंतगुमा सम्वेण विवीदकालेण ॥ . . निगोद जीवोंके एक शरीरमें सर्वशदेवने सिद्धोंसे और पूरे अतीत कालसे अनन्सगुणे जीव देखे हैं। कहीं-कहीं शास्त्रकारोंने अर्धपुद्गल परिवर्तनकालका प्रमाण अनन्त बतलाया है। इसपर शंका-समाधान करते हए मूलाचार (आचारांग) की टीकामें लिखा है कि अर्धपुद्गल परिवर्तनकालका वास्तविक प्रमाण असंख्यात ही है, अनन्त नहीं। अनन्त तो उस प्रमाणका नाम है जिसमें से उत्तरोत्तर हानि होनेपर भी कभी उसका अन्त नहीं प्राप्त होता। ___ इस प्रकार उक्त आगम प्रमाणोंके प्रकाशमें हम जानते हैं कि छह माह आठ समयमें ६०८ जीवोंके मोक्ष जानेपर भी न तो अनन्त संख्याप्रमाण संसार राशिका ही कभी अन्त प्राप्त होता है और न ही केवलज्ञानके द्वारा अनन्तका ज्ञान हो जानेमात्रसे वह अपने अपरिच्छिन्न प्रमाणको छोड़कर परिच्छिन्न प्रमाणवाली हो जाती है। ज्ञानका काममात्र इतना है कि जो जिसरूपमें है उसको उसीरूपमें जाने। देखो, केवलज्ञानकी ऐसी अपरिमित सामर्थ्य है कि वह छह द्रव्य और उनकी त्रिकालवर्ती पर्यायरूप जितना भी बहिः य है उसे अपने ज्ञानपरिणाममें अन्तर्लीन करके पृथक-पृथक रूपसे प्रत्यक्ष जानता है। बाह्य और आभ्यन्तर ऐसा कोई प्रतिबन्धक कारण नहीं रहता जो उसकी इस सामर्थ्यका व्याघात करनेमें सफल हो सके। इसके लिये हमें द्विरूपवर्गधाराके प्रसंगसे त्रिलोकसारमें वर्णित कथन पर दृष्टिपात करना चाहिये । जब दो अंकको आदि कर उत्तरोत्तर वर्ग करते हुए प्रवाहरूपसे उत्पन्न हुई राशियोंका विचार किया जाता है तब वह द्विरूपवर्गधारा कहलाती है। जैसे २ का वर्ग २४२-४ होता है औ ४ का वर्ग ४४४ = १६ होता है । इस प्रकार उत्तरोतर वर्ग करते हुए उत्पन्न हुई राशियोंका विचार विरूपवर्गधारामें किया जाता है। इसी प्रसंगसे उस अन्तिम राशिका मी निर्देश किया गया है जहाँ जाकर द्विरूपवर्गधाराको अन्तिम विकल्प प्राप्त होता है और बह राशि है प्रत्येक समय में होनेवाले केवलज्ञानके अनन्तानन्त विमागप्रतिच्छेद। .

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