Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

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Page 430
________________ · शंका विश्वके समस्त पदार्थ पर जानता है ? ज्ञान समाधान -- केवलज्ञान जानता तो स्वयंको ही हैं। किन्तु प्रतिसमय जो जाननेरूप पर्याय होती है, वह प्रतिबिम्बरूप आकारको लिये हुए दर्पणके समान सब पदार्थों को जाननेरूप ही होती है । इसलिए प्रत्येक समयमें उसके इस प्रकार जाननेरूप होनेसे व्यवहारसे यह कहा जाता है कि केवलज्ञान प्रत्येक समयमें सब द्रव्यों और उनकी त्रिकालवर्ती सब पर्यायोंको युगपत् जानता है। ज्ञानमें ऐसी अपूर्व सामर्थ्य है इसका भान तो छपस्थोंको भी होता है । उदाहरणार्थं चक्षु इन्द्रियको लीजिये । हम देखते हैं कि वह पदार्थों के पास जाती नहीं, फिर भी वह योग्य सन्दिhiमें स्थित पदार्थो के रूप, आकार आदिके साथ उन पदार्थों को जानती है । इससे सिद्ध है कि वह अपने स्थानमें रहकर भी अपने में प्रतिभासित होनेवाले सब पदार्थों को जानता है । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए कुन्दकुन्द नियमसारमें कहते हैं जाणदि पस्सदि सब्वं ववहारणयेण केवली भयवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि नियमेण अप्पाण ।। १५९ ॥ केवली जिन व्यवहारनयसे सब पदार्थोंको जानते-देखते हैं । किन्तु निश्चयनयसे केवली जिन आत्माको जानते-देखते हैं ।। १५९|| 1 केवली जिनके समय-समय जो ज्ञान परिणाम होता है वह स्वयं होता है । बाह्य पदार्थ हैं, इसलिए वैसा ज्ञान परिणाम होता है ऐसा भी नहीं है और प्रतिसमय ज्ञान परिणाम होता है इसलिए वैसे बाह्य पदार्थ हैं ऐसा भी नहीं है । प्रतिसमय बाह्य पदार्थ स्वयं हैं और प्रतिसमय ज्ञानपरिणामका होना स्वयं है । कोई किसीके अधीन नहीं है । इसलिए जब परमार्थसे विचार किया जाता है तो समय-समय जो केवलज्ञान परिणाम होता है वह स्वयंको जाननेरूप ही होता है । इसीको निखिल ज्ञेयोंकी अपेक्षा व्यवहारसे यों कह सकते हैं कि जितना कुछ शेय है उसको जाननेरूप होना है। इसी तथ्यको यहाँ पर आचार्यदेवने आत्मज्ञ और सर्वज्ञ पद द्वारा स्पष्ट किया है। वस्तुतः देखा जाय तो स्वयंको जानना ही ' सबको जानना है । ये दो नहीं हैं । जब परको अपेक्षा कथन करते हैं तो वह सबको जानता देखता है ऐसा कहा जाता है और जब स्वकी अपेक्षा कथन करते हैं तो स्वयंको जानता-वेखता है ऐसा कहा जाता है ।

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