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प्रश्नके अनुसार एक वस्तुमें प्रमाणसे अविरुद्ध विधि और प्रतिषेधरूप धर्मों की कल्पना सप्तभंगी है ।
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सप्तभंगीमें प्रथम भंग विधिरूप होता है और दूसरा भंग निषेधरूप होता है । विधि अर्थात् द्रव्यार्थिक तथा प्रतिषेध्य अर्थात् पर्यायार्थिक । आचार्य कुन्दकुन्दने द्रव्यार्थिकको प्रतिषे त्रक और व्यवहारको प्रतिषेध्य इसी अभिप्रायसे लिखा है । जिस दृष्टिमें भेदव्यवहार है उसके आश्रयसे बन्ध है और जिसमें भेदव्यवहारका लोप है या अभेदवृत्ति है उसके आश्रयसे बन्धका अभाव है यह उनके उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार अनेकामत और उसे बच्चनव्यवहारका रूप देनेवाला स्याद्वाद क्या है उसकी संक्षेपमें मीमांसा की ।