Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 427
________________ जैनतत्त्वमीमांसा ___ आचार्य गृपिच्छ भी इसी विषयको स्पष्ट करते हुए तस्वार्थसूत्रमें कहते हैं सर्वद्रव्य-पर्यायेषु केवलस्य ॥ १-२९ ॥ केवलज्ञान सब द्रव्य और उनकी सब पर्यायोंको जानता है ।।१-२९॥ इसकी व्याख्या करते हुए आचार्य पूज्यपाद सर्वार्थसिद्धि में कहते हैं जीवद्रव्याणि तावदनन्तानन्तानि, पुद्गलद्रव्याणि च ततोप्यनन्तानन्तानि अणु-स्कन्धभेदभिन्नानि, धर्माधर्माकाशानि त्रीणि, कालश्चासंस्थेयः । तेषां पर्यायाश्च त्रिकालभुव प्रत्येकमनन्तानन्तास्तेषु । द्रव्यं पर्यायजातं वा न किचिस्केवलज्ञानस्य विषयभावमतिक्रान्तमस्ति । अपरिमित-माहात्म्यं हि तत् ।। जीव द्रव्य अनन्तानन्त हैं, पुद्गलद्रव्य उनसे भी अनन्तगुणे हैं, उनके अणु और स्कन्ध ये भेद हैं। धर्म, अधर्म और आकाश ये मिल कर तीन हैं, और काल द्रव्य असंख्यात है। इन सब द्रव्योंकी पृथक् पृथक् तीनों कालोंमें होनेवाली पर्यायें अनन्तानन्त हैं। इन सब द्रव्यों और उनकी सब पर्यायोंको केवलज्ञान जानता है। ऐसा न कोई द्रव्य है और न कोई पर्यायसमूह है जो केवलज्ञानके विषयके बाहर हो। वह नियमसे अपरिमित माहात्म्यवाला है। ४. अन्य प्रकारसे महिमावन्त केवलज्ञानका समर्थन ___केवलज्ञान ऐसा महिमावन्त है यह केवल अध्यात्म जगत्में ही स्वीकार किया गया हो ऐसा नहीं है, दार्शनिक जगत्से भी इसका समर्थन होता है। स्वामी समन्तभद्र आप्तमोमांसामें कहते है मूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोजन्यादिरिति सर्वजसंस्थितिः ॥ ५ ॥ जो सक्ष्म पदार्थ हैं, जो अन्तरित पदार्थ है और जो दूरवर्ती पदार्थ, है, वे किसीके प्रत्यक्ष अवश्य हैं, क्योंकि वे अनुमानके विषय हैं। जो अनुमानके विषय होते है वे किसीके प्रत्यक्ष ज्ञानके बिषय अवश्य होते हैं। जैसे अग्नि आदि । ___ यहाँ सूक्ष्म कहनेसे परमाणु आदि वे पदार्थ लिये गये हैं जो स्वभावसे इन्द्रिय अगोचर होते हैं । अन्तरित कहनेसे वे पदार्थ लिये गये हैं जो अतीत-अनागत कालबर्नी होनेसे इन्द्रिय अगोचर होते हैं। तथा दूर कहनेसे वे पदार्थ लिये गये हैं जो क्षेत्रको अपेक्षा दूरवर्ती होते है। ये तीनों प्रकारके पदार्थ किसांके प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि वे अनुमानसे जाने

Loading...

Page Navigation
1 ... 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456