Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

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Page 424
________________ hamaraस्वभावमीमांसा ३९१ पदार्थो के रासायनिक संयोगोंका फल भी नहीं कह सकते, क्योंकि जहाँ चेतनाका अधिष्ठान होता है वहीं उनकी उपलब्धि होती है । विश्वमें अबतक अनेक प्रकारके प्रयोग हुए। उन प्रयोगों द्वारा अनेक प्रकारके चमत्कार भी सामने आये । हाइड्रोजन बम बने, परमाणुके विस्फोटको भी बात कही गई। दूरबीन और ऐसी खुर्दुवीज भी बनी जिनसे एक वस्तुको हजार लाख गुणा बड़ा करके देखनेकी क्षमता प्राप्त हुई। ऐसे वाण भी छोड़े गये जो पृथिवीकी परिधिके बाहर गमन करनेमें समर्थ हुए । वैज्ञानिकोंने यन्त्रोंको सहायतासे प्रकृतिके अनेक रहस्योंको जाननेके नये-नये तरीके खोजे आदि । किन्तु आजतक कोई भी वैज्ञानिक यह दावा न कर सका कि मैने चेतनाका निर्माण कर लिया है। इतना सब कुछ करनेके बाद भी आज भी भौतिकवादियोंके लिये चेतना रहस्यका विषय बना हुआ है। वर्तमान कालमें ही क्या अतीत कालमें भी वह इनके लिये रहस्यका विषय बना रहा है । और हम तो अपने अन्त साक्षीस्वरूप अनुभवके आधार पर यह भी कह सकते हैं कि भविष्यकालमें भी वह इनके लिये रहस्यका विषय बना रहेगा, क्योंकि जो स्वयं जाननेवाला होकर भी अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करता नही वह इन भौतिक पदार्थों के आलम्बनसे उसे पकडने की जितनी भी चेष्टाऐं करेगा वे सब विफल होंगो । जड़ पदार्थोंके समान आत्माका अस्तित्व यह सनातन सत्य है । अतीत कालमें ऐसे अगणित मनुष्य हो गये हैं जिन्होंने उसका साक्षात्कार किया और लोकके सामने ऐसा मार्ग रखा जिस पर चलकर उसका साक्षात्कार किया जा सकता है । किन्तु शुद्ध भौतिकवादी इसपर भरोसा नहीं करते और नाना युक्तियों प्रयुक्तियों द्वारा उसके अस्तित्वके खण्डनमें लगे रहते हैं । वे यह अनुभवने की चेष्टा ही नहीं करते कि जिस बुद्धिके द्वारा मैं इसके लोप करनेका प्रयत्न करता हूँ बुद्धिका आधारभूत वह मैं पदका वाच्य ही तो आत्मा है जो शरोरसे सर्वथा पृथक् है । दूधमें पचराग मणिके निक्षिप्त करनेपर वह अपनी प्रभासे जैसे दूधको व्याप लेती है वैसे ही यह आत्मा भी अपने प्रदेशों द्वारा शरीरको व्याप रहा है । है वह शरीरसे अत्यन्त भिन्न ही, क्योंकि मुर्दा शरीरसे चेतनसे अधिष्ठित शरीरमें जो अन्तर प्रतीत होता है वह एकमात्र उसीके कारण प्रतीत होता है । यह अन्तर केवल शरीरमेंसे प्राणवायुके निकल जानेके कारण नहीं होता । किन्तु शरीरको व्यापकर जो स्थायी तत्त्व

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