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अनेकान्त-स्थाबादमीमांसा .... ३८३ कि तीर्थकर सयोगी अयोगी जिन भी इसके अपवाद नहीं है । बब विचार कीबिए कि जीवके साथ एकक्षेत्रवागाहीरूपसे सम्बन्धको प्राप्त हुए उन शरीरों में जो अमुक प्रकारका रूप होता है, उनका यथासम्भव जो अमुक । प्रकारका संस्थान और संहनन होता है इसका व्यवहार हेतु पुद्गलविपाकी कर्मों का उदय ही है, जीवको वर्तमान पर्याय नहीं तो भी शरीरमें प्राप्त हुए रूप आदिको देखकर उस द्वारा तीर्थकर केवली जिनकी स्तुतिकी जाती है और कहा जाता है कि अमुक तीर्थकर केवली लोहित वर्ण हैं, अमुक तीर्थकर केवली शुक्ल वर्ण हैं और अमुक तीर्थकर केवली पीतवर्ण है आदि । यह तो है कि जब शरीर पुद्गल द्रव्पकी पर्याय है तो उसका कोई न कोई वर्ण अवश्य होगा। पुद्गलको पर्याय होकर उसमें कोई न कोई वर्ण न हो यह नहीं हो सकता। परन्तु विचार कर देखा जाय तो तीर्थकर केवलोकी पर्यायमें उसका अत्यन्त अभाव ही है, क्योंकि तीर्थकर केवली जोवद्रव्यकी एक पर्याय है जो अनन्त ज्ञानादि गुणोंसे विभूषित है। उसमें पुद्गलद्रव्यके गुणोंका सद्भाव केसे हो सकता है ? अर्थात् त्रिकालमें नहीं हो सकता। फिर भी तीर्थकर केवलीसे संयोगको प्राप्त हुए शरीरमें अन्य तीर्थकर केवलीसे संयोगको प्राप्त हुए शरीरमें वर्णका भेद दिखलानेरूप प्रयोजनसे यह व्यवहार किया जाता है कि अमुक तीर्थंकर केवली लोहित वर्ण हैं और अमुक तीर्थंकर केवली पीतवर्ण हैं आदि । जैसा कि हम लिख आये हैं कि तीर्थकर केवली जीव द्रव्यकी एक पर्याय है। उसमें वर्णका अत्यन्त अभाव है। फिर भी लोकानुरोधवश प्रयोजन विशेषवश तीर्थकर केवलीमें उक्त प्रकारका व्यवहार किया जाता है जो तीर्थकर केवलीमें सर्वथा असत् है, इसलिए प्रयोजन विशेषसे किया गया यह आरोपित असत् व्यवहार ही जानना चाहिये।
सेनाके निकलनेपर राजा निकला ऐसा कहना भी आरोपित असद् व्यवहारका दूसरा उदाहरण है । विचार कर देखा जाय तो सेना निकली यह व्यवहार स्वयं उपचरित है। उसमें भी सेनासे राजामें अत्यन्त भेद है। वह सेनाके साथ गया भी नहीं है। अपने महल में आराम कर रहा है। फिर भी लोकानुरोषवश 'प्रयोजनविशेषसे सेनाके निकलनेपर राजा निकला या राजाकी सवारी निकली यह व्यवहार किया जाता है जो सर्वथा असत् है इसलिये प्रयोजन विशेषसे किये गये इस व्यवहारको भी भारोपित बसद् व्यवहार हो जानना चाहिए। ..