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जनतत्त्वमीमांसा यह व्यवहार आत्मामें है नहीं, पर परसंयोगको दृष्टिसे उसमें कल्पित किया गया है यह उक्त कथनका भाव है। इस विषयको ठीक तरहसे समझने के लिए स्थापना निक्षेपका उदाहरण पर्याप्त होगा। जैसे किसी पाषाणकी मूर्तिमें इन्द्रकी स्थापना करने पर यही तो कहा जायगा कि वास्तवमें वह पाषाणकी मूर्ति इन्द्रस्वरूप है नहीं, क्योंकि उसमें जीवस्व, आशा, ऐश्वर्य आदि आत्मगुणोंका अत्यन्ताभाव है। फिर भी प्रयोजनविशेषसे उसमें इन्द्रकी स्थापना की गई है उसी प्रकार बाह्य निमित्तादिकी अपेक्षा आरोपित व्यवहार जानना चाहिए । बाह्य निमित्तादिकी दृष्टिसे आरोपित व्यवहार, जैसे कुम्हारको घटका कर्ता कहना । प्रयोजन विशेषसे आरोपित व्यवहार, जैसे शरीरकी स्तुतिको तीर्थकरकी स्तुति कहना या सेनाके निकलने पर राजा निकला ऐसा कहना आदि ।
विचार कर देखा जाय तो रागादिरूप जीवके परिणाम और कर्मरूप पुद्गल परिणाम ये एक दूसरेके परिणमनमें नित्रित (उपचरित हेतु) होते हुए भी तत्त्वत जीव और पुद्गल परस्परमें कर्तृ-कर्मभावसे रहित हैं। ऐसा तो है कि जब विवक्षित मिट्टी अपने परिणामस्वभावके कारण घटरूपसे परिणत होती है तब कुम्हारकी योग-उपयोगरूप पर्याय स्वयमेव उसमें निमित्त व्यवहारको प्राप्त होती है। ऐसी वस्तुमर्यादा है। परन्तु कुम्हारको उक्त पर्याय घट पर्यायकी उत्पत्तिमें व्यवहारसे निमित्त होनेमात्रसे उसकी कर्ता नही होती, और न घट उसका कर्म होता है, क्योंकि अन्य द्रव्यमें अन्य द्रव्यके कर्तृत्व और कर्मत्व धर्मका अत्यन्त अभाव है। फिर भी लोक-व्यवहारवश कुम्हारको विवक्षित पर्यायने मिट्टीकी घट पर्यायको उत्पन्न किया इस प्रकार उस पर मिट्टीकी घट पर्यायके कर्तृत्व धर्मका और घटमें कुम्हारके कर्मत्वधर्मका आरोप किया जाता है। यद्यपि शास्त्रकारोंने भी इसके अनुसार लौकिक दृष्टिसे वचन प्रयोग किये हैं, परन्तु है यह व्यवहार असत् ही। यह तो बाह्य निमितादिको दृष्टिसे आरोपित व्यवहारकी चरचा हुई। इसका विशेष खुलासा हम कर्तृ-कर्ममीमांसा प्रकरणमें कर आये है और वहाँ इसके समर्थनमें प्रमाण भी दे आये है, इसलिए यहाँ पर इस विषयमें अधिक नहीं लिखा है। ___ अब प्रयोजनविशेषसे आरोपित व्यवहारके उदाहरणोंका विश्लेषण कीजिए-जितने भी संसारी जीव हैं उनके एक कालमें कमसे कम दो और अधिकसे अधिक चार शरीरोंका संयोग अवश्य होता है। यहां तक