Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 417
________________ जैनतस्वमीमांसा इसी प्रकार लोकमें और भी बहुतसे व्यवहार प्रचलित हैं, क्योंकि के किसी द्रव्यके न तो गुण ही हैं और न पर्याय ही हैं, इसलिए जो व्यवहार विवक्षित पदार्थोमें पर्यायदृष्टिसे प्रतीतिमें भाता है, वह मोक्षमार्गमें अनुपादेय होनेसे आश्रय करने योग्य नहीं माना गया है अतएव उसे गौण करके अनेकान्तमूर्ति ज्ञायकस्वभाव आत्माकी स्थापना करना तो उचित है। किन्तु जो व्यवहार वस्तुभूत न होनेसे सर्वथा असत् है, मात्र लौकिकदृष्टिसे ज्ञानमें उसकी स्वीकृति है। उसका मोक्षमार्गमें सर्वथा निषेध ही करना चाहिये। वस्तुमें अनेकान्तको प्रतिष्ठा करते समय आत्मामें ऐसे व्यवहारको गौण करनेका प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि जो व्यवहार भूतार्थ होता है उसे ही नय विशेषके आश्रयसे गौण किया जाता है। किन्तु जिसकी विवक्षित वस्तुमें सत्ता ही नहीं है उसे गौण करनेका अर्थ ही उसकी सत्ताको स्वीकार करना है जो युक्तियुक्त नहीं है। इसलिए जितना भी असत् व्यवहार है उसे दूरसे ही त्यागकर और जितना पर्यायहष्टिसे भूतार्थ व्यवहार है उसे गोण करके एकमात्र ज्ञायकस्वभाव आत्माकी उपासना ही मोक्षमार्गमें तरणोपाय है ऐसा निर्णय यहाँपर करना चाहिए। यहाँपर यह प्रश्न होता है कि वर्णादि तो पुद्गलके धर्म हैं, इसलिए आत्मामें ज्ञायकस्वभावके अस्तित्वको दिखलाकर उसमें उनका नास्तित्वदिखलाना तो उचित प्रतीत होता है। परन्तु आत्मामें ज्ञायकभावके अस्तित्वका कथन करते समय उसमें प्रमत्तादि भावोंके नास्तित्वका कथन करना उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि ये दोनों भाव (ज्ञायक भाव और प्रमत्तादि भाव) एक द्रव्यके आश्रयसे रहते हैं, इसलिए एक द्रव्यवृत्ति होनेसे ज्ञायकभावके अस्तित्वके कथनके समय इन भावोंका निषेध नहीं बन सकता, अतएव इस दृष्टिसे अनेकान्तका कथन करते समय 'कथंचित् आत्मा ज्ञायक भावरूप है और कथंचित् प्रमत्तादि भावरूप है' ऐसा कहना चाहिए। यह कहना तो बनता नहीं कि आत्मामें प्रमत्तादि भावोंकी सर्वत्र व्याप्ति नहीं देखी जाती, इसलिए आत्मामें उनका निषेध किया है, क्योंकि कहींपर (प्रमत्तगुणस्थान तक) प्रमत्तभावकी और आगे अप्रमत्तभावकी व्याप्ति बन जानेसे आत्मामें शायकभावके साथ इनका सद्भाव मानना ही पड़ता है ? यह एक प्रश्न है ! समाधान यह है कि इस अनेकान्तस्वरूप प्रत्येक

Loading...

Page Navigation
1 ... 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456