Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

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Page 410
________________ बनेकाल-स्थाहायमीमांसा ३७ धोके प्रति उदासीनता रहती है। न तो उनका विधान ही होता है . और न प्रतिषेध ही। __ शंका--'अस्त्येव जीवः' इसमें एव पद लगाकर विशेषण-विशेष्य- " भावका नियमन करते हैं तब अर्थात् ही इतर धर्मो की निवृति हो चाची है, उदासीनता कहाँ रही? ___ समाधान-इसलिये इतर धर्मों को चोतन करनेके लिये 'स्यात् पदका प्रयोग किया जाता है । तात्पर्य यह है कि एवकारके प्रयोगसे अब इतर निवृत्तिका वस्तुतः प्रसंग प्राप्त होता है तब स्यात्' पद विवक्षित धर्मके साथ इतर धर्मोकी सूचना दे देता है। यहाँ भी पहला भंग द्रव्याथिकनयकी विवक्षासे कहा गया है और ' दूसरा भंग पर्यायाथिकनयकी विवक्षासे घटित होता है। द्रव्यार्थिक नय सत्त्वको विषय करता है और पर्यायार्थिक नय असत्वको विषय करता है । यहाँ बसवका अर्थ सर्वथा अभाव नहीं है। किन्तु भावान्तरस्वभाव धर्म ही यहाँ असत्त्वपदसे स्वीकृत है।। यह प्रमाण सप्तभंगीके साथ नय सप्तभंगीकी संक्षिप्त प्ररूपणा है। १५ मोक्षमार्गमें दृष्टिको मुख्यता है अब सवाल यह है कि जीवन में मोक्षमार्गको प्रसिद्धिके अभिप्रायसे द्रव्यानुयोग परमागममें आत्माको जो स्वत सिद्ध होनेसे अनादि अनन्त, •विशदज्योति, और नित्य उद्योतरूप एक ज्ञायकस्वरूप बतलाया गया है सो क्यों, क्योंकि जब आत्मा द्रव्य-पर्याय उभयरूप है तब आत्मा प्रमत्त नहीं है, अप्रमत्त नहीं है ऐसा कहकर पर्यायस्वरूप मात्माका निषेध क्यों किया गया है ? यह एक सवाल है जो उन महाशयोंकी ओरसे उठाया जाता है जो लस्वप्ररूपणा और मोक्षमार्ग प्ररूपयाको मिलाकर देखते हैं। वस्तुतः ये महाशय बाचार्योको दृष्टिमें करुणाके मात्र हैं। __ यहाँ यह दृष्टिमें नहीं लेना है कि उपयोग लक्षणवाला जीव अनेकान्तस्वरूप केसे हैं । आत्मशान करते समय यह तो पहले ही हृदयंगम कर लिया गया है। यहाँ तो यह दृष्टि में लेना है कि किस रूपमें स्वास्माकी भावना करनेसे हम मोक्षमामके अधिकारी बनकर मोक्षके पात्र हो सकते हैं। समयसार परमागममें इसी तथ्यको विशदरूपसे स्पष्ट किया गया है। हमें समयसार परमागमका मनन इसी दृष्टिसे करता चाहिये। वैसे विचार कर देखा जाय तो वहाँ हमें अनेकान्तभित स्याहार

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