Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

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Page 411
________________ ३७८ जैनसत्वमीमांसा वाणीका पद-पद पर दर्शन होता है क्योंकि उसमें आचार्य कुन्दकुन्दने परसे भिन्न एकत्वरूप आत्माको दिखलाते हुए उस द्वारा उसी अनेकान्त. का सूचन किया है । वे यह नहीं कहते कि जिसका कोई प्रतिपक्षी ही नहीं है ऐसे एकत्वको दिखलाऊँगा। यदि वे ऐसी प्रतिज्ञा करते तो वह एकान्त हो जाता जो मिथ्या होनेसे इष्टार्थकी सिद्धिमें प्रयोजक नहीं होता,। किन्तु वे प्रतिज्ञा करते हुए कहते हैं कि मैं आत्माके जिस एकत्वका प्रतिपादन करनेवाला हूँ उसका परसे भेद दिखलाते हुए ही प्रतिपादन करूंगा। यदि कोई समझे कि वे इस प्रतिज्ञा वचनको ही करके रह गये हैं सो भी बात नहीं है, क्योंकि जहाँ पर भी उन्होंने आत्माके ज्ञायकस्वभावकी स्थापना को है वहाँ पर उन्होंने परको स्वीकार करके उसमें परका नास्तित्व दिखलाते हुए ही उसकी स्थापना की है। इसी प्रकार प्रकृतमें प्रयोजनीय अन्य तत्त्वका कथन करते समय भी उन्होंने गौण-मुख्यभावसे विधि-निषेध दृष्टिको साध कर ही उसका कथन किया है। अब इस विषयको स्पष्ट करनेके लिए हम समयप्राभूतके कुछ उदाहरण उपस्थित कर देना चाहते हैं १. 'ण वि होदि अपमत्तो ण पमत्तो' इत्यादि गाथाको लें। इस द्वारा आत्मामें ज्ञायकस्वभावका 'अस्तित्वधर्म द्वारा और उसमें प्रमत्ताप्रमत्तभावका 'नास्तित्वधर्म द्वारा प्रतिपादन किया गया है।' दृष्टियाँ दो हैं-द्रव्याथिकदृष्टि और पर्यायार्थिकदृष्टि । द्रव्यार्थिक दृष्टि से आत्माका अवलोकन करने पर वह ज्ञायकस्वभाव ही प्रतीतिमे आता है, क्योंकि यह आत्माका त्रिकालाबाधित स्वरूप है। किन्तु पर्यायार्थिकदृष्टिसे उसी आत्माका अवलोकन करने पर वह प्रमत्तभाव और अप्रमत्तभाव आदि विविध पर्यायरूप ही प्रतीत होता है। इन दोनों रूप आत्मा है इसमें सन्देह नहीं। परन्तु यहाँ पर बन्धपर्यायरूप प्रमत्तादि क्षणिक भावोंसे रुचि हटाकर इस आत्माको अपने ध्र वस्वभावकी प्रतीति करानी है, इसलिए मोक्षमार्गमें द्रव्यार्थिकदृष्टि ( निश्चयनय ) की मुख्यता होकर पर्यायार्थिकदृष्टि (व्यवहारनय) गौण हो जाती है। अर्थात् दृष्टि में उसका निषेध हो जाता है। यही कारण है कि यहाँ पर द्रव्यार्थिकदृष्टिकी मुख्यता होनेसे आत्मा जायकस्वभाव है इसकी अस्तित्व धर्म द्वारा प्रतीति कराई गई है और आत्माके त्रिकालाबाधित ज्ञायकस्वभावमें प्रमत्तादि भाव नहीं हैं यह जानकर आत्मामें इनकी नास्तित्व धर्म द्वारा प्रतीति कराई गई है । तात्पर्य यह है कि प्रकृतिमे द्रव्याथिकनयका विषय विवक्षित होनेसे विवक्षितका

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