Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

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Page 360
________________ निश्चय व्यवहारमीमांसा .. ३२७ जाता है तो यही उदाहरण अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनयका हो जाता है और यदि इसे परयोगसे विशेषण सहित कर दिया जाता है तो वह उपचरित सद्भूत व्यवहारमयका उदाहरण हो जाता है। जैसे जीवके ज्ञान है उसे स्व-पर प्रकाशक कहना। यद्यपि जीब स्वयं ज्ञानस्वरूप होनेसे वह सहज ही प्रकाशकस्वभाव है, तथापि परके योगसे उसे परप्रकाशक कहना यह उपचार है, इसलिए यह उपचरित सद्भूत व्यवहारनयका उदाहरण है। उनमेंसे अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनयके स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए पंचाध्यायीमें कहा है स्यादादिमो यथान्तीना शक्तिरस्ति यस्य सत. । तत्तत्सामान्यतया निरूप्यते चेद् विशेषनिरपेक्षम् ॥१-५३५।। इदमत्रोदाहरणं स्यात् जीवोपजीविजीवगुणः । शेयालम्बनकाले न तथा ज्ञेयोपजीवि स्यात् ॥१-५३६।। घटसद्भावे हि यथा घटनिरपेक्षम् चिदेव जीवगुण । अस्ति घटाभावेऽपि च घटनिरपेक्षं चिदेव जीवगुणः ।।१-५३७॥ जिस पदार्थकी जो अन्तर्लीन स्वभावभूत शक्ति है उसे जो नय अवान्तर भेद किये बिना सामान्यरूपसे उस पदार्थकी बतलाता है वह अनुपचरित सद्भुत व्यवहारनय है ॥१-५२५।। इस विषयमें यह उदाहरण है कि जिस प्रकार ज्ञानगुण जीवोपजीवी होता है उस प्रकार वह जानने. में ज्ञेयके ज्ञापक निमित्त होते समय ज्ञेयोपजीवी नहीं होता ॥१-५३६॥ जैसे घटके सद्भावमें जीवगण घटको अपेक्षा किये बिना चित्स्वरूप ही है वैसे घटके अभावमें भी जोवगुण ज्ञान घटकी अपेक्षा किये बिना चित्स्वरूप ही है ॥१-५३७॥ तात्पर्य यह है कि जीवद्रव्य अनन्त धर्मोको अन्तर्लीन किये हुए एक अखण्ड चित्स्वरूप पदार्थ है। उसमें एक स्वभावभूत धर्मके भेद द्वारा उसे जानना अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय है। उपचरित सद्भुत व्यवहारनयका निर्देश करते हुए वहाँ बतलाया है उपचरितः सद्भूतो व्यवहार. स्यान्नयो यथा नाम । अविरुद्धं हेतुबशात् परतोऽप्युपचर्यते यथा म्बगुणः ॥१-५३७॥ अर्थविकल्पो जानं प्रमाणमिति लक्ष्यतेऽधुनापि यथा । अर्थ. स्व-परनिकायो भवति विकल्पस्तु चित्सदाकारम् ।।१-५३८॥ असदपि लक्षणतत्सन्मात्रत्वे सुनिर्विकल्पस्चात् । तदपि न विनालम्बाग्निविषयं शक्यते वक्तुम् ।।१-५३९॥

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