________________
अनेकान्त स्वामीमांसा
३६७
परपादपि सस्ये चेतनादर वेतनादित्यप्रसंगात् तत्स्वात्मवत्, पररूपादिव स्वरूपावयस्वं सर्वया शून्यतापत्तेः स्वद्रव्यादिव परद्रव्यादपि सत्वे प्रतिनियमविरोधात् ।
इसमें सर्वप्रथम तो वस्तुका वस्तुत्व क्या है इसका स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य विद्यानन्दने कहा है कि जिस व्यवस्थासे स्वरूपका उपादान और पररूपका अपोहन हो वही वस्तुका वस्तुत्व है। फिर भी जो इस व्यवस्थाको नहीं मानना चाहता उसके सामने जो आपत्तियां आती हैं उनका खुलासा करते हुए वे कहते हैं
१. यदि स्वरूपके समान पररूपसे भी वस्तुको अस्तिरूप स्वीकार किया जाता है तो जितने भी चेतनादिक पदार्थ हैं वे जैसे स्वरूपसे चेतन हैं वैसे ही वे अचेतन आदि भी हो जायेंगे ।
२. पररूपसे जैसे उनका असत्व है उसी प्रकार स्वरूपसे भी यदि उनका असत्त्व मान लिया जाता है तो स्वरूपास्तित्वके नहीं बनने से सर्वथा शून्यताका प्रसंग आ जायगा ।
३ तथा स्वद्रव्यके समान परद्रव्यरूपसे भी यदि सत्त्व मान लिया जाता है तो द्रव्योंका प्रतिनियम होनेमें विरोध आ जायगा ।
यत. उक्त दोष प्राप्त न हों अत प्रत्येक चेतन-अचेतन द्रव्यको स्वरूपसे सद्रूप ही और पररूपसे असद्रूप ही मानना चाहिए ।
११. उदाहरणद्वारा उक्त विषयका स्पष्टीकरण
एक घटके आश्रयसे भट्टाकलंकदेवने घटका स्वात्मा क्या और परात्मा क्या इस विषयपर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला है। इससे समयप्राभृत आदि शास्त्रोंमें स्वसमय और परसमयका जो स्वरूप बतलाया गया है उसपर मौलिक प्रकाश पड़ता है, इसलिए यहाँपर घटका स्वात्मा क्या और परात्मा क्या इसका विविध दृष्टियोंसे ऊहापोह करना इष्ट समझकर तत्त्वार्थवार्तिक, (अ० १, सूत्र ६) में इस सम्बन्धमें जो कुछ भी कहा गया है उसके भावको यहाँ उपस्थित करते हैं
१. जो घट बुद्धि और घट शब्दकी प्रवृत्तिका हेतु है वह स्वात्मा है और जिसमें घट बुद्धि और घट शब्दकी प्रवृत्ति नहीं होती वह परात्मा है। घट स्वात्माकी दृष्टिसे अस्तित्वरूप है और परात्माकी दृष्टिसे नास्तित्वरूप है।
२. नामघट स्थापनाबट, द्रव्यचट और भावघट इनमेंसे जब जो