Book Title: Jain Tattva Mimansa
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ashok Prakashan Mandir

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Page 389
________________ ३५६ जैनतत्वमीमासा हृदयंगम करने पर ही भेदविज्ञानमें निपुणता प्राप्त होना सम्भव है, अन्य प्रकारसे नहीं । उदाहरणार्थ जब यह कहा जाता है कि रत्नत्रय ही मोक्षमार्ग है तब उसका अर्थ होता है कि रत्नत्रयको छोड़कर अन्य कोई मोक्षमार्ग नहीं है । इसे और खुलासा कर समझा जाय तो यह कहा जायगा कि यद्यपि जीव वस्तु अनन्त धर्मगर्भित एक पदार्थ है, परन्तु उसमें भी मोक्षमार्गता मात्र रत्नत्रयपरिणत आत्मामें ही घटित होती है, अन्य अनन्त धर्मपरिणत आत्मामें नहीं। इस प्रकार विविध दृष्टिकोणों से देखने पर एक ही वस्तु कैसे अनेकान्तस्वरूप है यह स्पष्ट हो जाता है, इसलिये उसके स्वरूपका ख्यापन करते हुए समयसार आत्मख्याति टीकामें कहा भी है तत्र यदेव तत् तदेव अतत् यदेवंकं तदेवानेकं यदेव सत् तदेव असत् यदेव नियं तदेव अनित्यं इत्येकस्मिन् वस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्ध शक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः । स्वतन्त्र सत्ताकी वस्तुऐं अनन्त है । उन्हे बुद्धिगम्य करके विविध दृष्टिकोणोंसे देखने पर प्रत्येक वस्तु कैसी प्रतीति में आती है इसीका ख्यापन करते हुए परमागम में कहा है ----- जो तत् है वही अतत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है तथा जो नित्य है वही अनित्य है इस प्रकार एक ही वस्तुमें वस्तुत्वकी प्रतिष्ठा करनेवाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियोंके प्रकाशनका नाम अनेकान्त है । ५ चार युगलोंको अपेक्षा अनेकान्तकी सिद्धि यद्यपि जीवद्रव्य अनन्त हैं । पुद्गल द्रव्य उनसे भी अनन्तगुणे हैं । धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य प्रत्येक एक-एक हैं तथा कालद्रव्य लोकाकाशके जितने प्रदेश हैं तत्प्रमाण हैं । उनमेंसे यहाँ उदाहरणस्वरूप एक जीव द्रव्यकी अपेक्षा विचार करते हैं । उसमें भी अनेकान्त के स्वरूपका ख्यापन करते समय जिन परस्पर विरुद्ध चार युगलोंका निर्देश कर आये हैं उनको ध्यान में रखकर क्रमसे मात्र आत्मतत्त्वका निरूपण करेंगे १. पहला युगल है - आत्मा तत्स्वरूप ही है और अतत्स्वरूप ही है, क्योकि अन्तरंगमें अपने सहज ज्ञानस्वरूपके द्वारा तत्स्वरूप ही है और बाहर अनन्त ज्ञेयोंको जानता है इस अपेक्षा वह अतत्स्वरूप ही है । २. दूसरा युगल है - आत्मा एक ही और अनेक ही है, क्योंकि सह

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