________________
. अनेकान्त स्मातालमीमांसा - ३५७ . प्रवृत्तमान गुण और क्रमशः प्रवृत्तमान पर्यायों स्वरूप अनन्त चैतन्यरूप . अंशोंके समुदायपमेकी अपेक्षा वह एक ही है और सहन हो, पविभक्त एक द्रव्यमें व्याप्त सह प्रवृत्तमान गुण और क्रमशः प्रवृत्तमान पर्यायस्वरूप अनन्त चैतन्य अंशरूप पर्यायोंकी अपेक्षा वह अनेक ही है। यहाँ भेद-कल्पनामें गुणोंको पर्याय कहा गया है।'
३. तीसरा युगल है-आत्मा सत् ही है और असत् ही है, क्योंकि वह अपने स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूपसे होनेकी शक्तिरूप स्वभाववाला है, इसलिये सत् ही है और परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप न हानेको शक्तिरूप स्वभाववाला है, इसलिये असत् ही है।
४. चौथा युगल है-आत्मा नित्य ही है और अनित्य ही है, क्योंकि, अनादि-निधन-अविभाग एकरस परिणत होनेके कारण वह नित्य ही है और क्रमशः प्रवर्तमान एक समयको मर्यादावाले अनेक वृत्त्यंशरूपसे परिणत होने के कारण वह अनिस्य ही है ।
इस प्रकार एक ही आत्मा तत है और अतत् है, एक है और अनेक है, सत् है और असत् है तथा नित्य है और अनित्य है। इसलिये वह अनेकान्तस्वरूप है यह निश्चित होता है। इसी प्रकार जितना भी द्रव्यजात है उनमेसे प्रत्येकको अनेकान्तस्वरूप घटित कर लेना चाहिये।
शका-श्री समयसार परमागममें आत्माको ज्ञानमात्र कहा गया है सो यदि आत्मद्रव्य ज्ञानमात्र होनेसे स्वयं ही अनेकान्तस्वरूप है तो फिर आत्मतत्त्वकी सिद्धिके लिए पृथक्से अनेकान्तकी प्ररूपणा क्यों की जातो है ?
समाधान-अज्ञानी जन आत्मतत्वको ज्ञानमात्र नहीं मानते, इसलिये आत्मतत्त्व ज्ञानमात्र है यह उपदेश दिया जाता है। वस्तुत: अनेकान्तके बिना ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वकी सिद्धि होना सम्भव नहीं है, इसलिए पृथकअनेकान्तको प्ररूपणा की जाती है ।
शंका-जैसे प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मगभित एक वस्तु है वैसे ही आत्मा भी अनन्त धर्मभित एक वस्तु है। फिर प्रकृतमें उसे ज्ञानमात्र क्यों बतलाया गया है।
. समाधान-लाख-लक्षणमें अमेव करके आत्माको नाममात्र कहने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं है । यद्यपि आत्मा भी अन्य द्रव्योंके समान अमन्तधर्मगमित एक वस्तु है। किन्तु उसमें साधारण और असाधारण दोनों